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अपभ्रंश-भारती-2
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(5) उज्जाणवणु व उत्तुंगसालु, उल्लसिय-सोण-पेसल-पवालु ।
तियसिद व विबुहयणहाँ मणि?, रंभापरिरंभिउ सइँ गरिटु ॥- सुदसणचरिउ, 1.4 - वह नगर ऊँचे शालवृक्षों तथा उल्लसित लाल सुन्दर कोपलोंवाले उद्यानवन के सदृश ऊँचे
कोटसहित, रक्तमणि व सुन्दर प्रवालों से चमकता था । वह बुद्धिमानों के लिए उसी प्रकार प्यारा था जैसा कि देवेन्द्र देवों को प्यारा है, रंभा से आलिगित है तथा स्वयं
गरिमा को प्राप्त है । (6) वम्महु जिह रइपीईसमिद्ध, णहयल परिघोलिरमयरचिधु ।
वम्महु जिह णिम्मलधम्मसज्जु, उप्फुल्लिय कुसुमसरु मणोज्जु ॥ - वही - वहाँ रति और प्रीति की खूब समृद्धि थी, तथा आकाश में वहाँ की मकराकृति ध्वजाएँ
फहरा रही थीं; अतएव जो कामदेव के समान दिखायी देता था, जो रति और प्रीति नामक देवियों से युक्त है और जिसकी ध्वजा मकराकार है वह नगर निर्मल धर्म से सुसज्जित
तथा प्रफुल्लित पुष्पोंवाले मनोज्ञ सरोवरों के द्वारा उस मन्मथ के समान था । 2. सिंहावलोक . यह भी 16 मात्रावाला छन्द है लेकिन जहाँ पद्धडिया में अन्त में जगण होता है वहाँ
सिंहावलोक में अन्त में सगण । (1) ज अहिणव-कोमल-कमल-करा, बलिमण्डऐं लेवि अणङ्गसरा ।
स-विमाणु पवण-मण-गमण-गउ, देवहुँ दाणवहु मि रणे अजउ ॥ -पउमचरिउ, 68.9 - अभिनव, सुन्दर, कोमल हाथोंवाली अनंगसरा को वह विद्याधर जबर्दस्ती ले गया । पवन
और मन के समान गतिवाले विमान में बैठा हुआ वह देवताओं और दानवों के लिए अजेय था ।
(2) त चक्काहिवइ-लद्ध-पसरा, विज्जाहर पहरण-गहिय-करा । __कोवग्गि-पलित्त-फुरिय-वयणा, दवाहर भू-भङ्गुर णयणा ॥
- वही - चक्रवर्ती के आदेश से विद्याधर हाथ में अस्त्र लेकर दौड़े । उनके मुख क्रोध की ज्वाला
से चमक रहे थे । उनके अधर चल रहे थे, उनकी भौहें और नेत्र टेढ़े ये । (3) विधति जोह जलहरसरिसा, वावल्लभल्लकण्णिय वरिसा ।
फारक परोप्पर ओवडिया, कोताउह कोतकरहिं भिडिया ॥- ज. सा. च., 6.6 - योद्धा लोग जलधरों के समान बल्लभ, भालो व बाणों की वर्षा करते हुए (परस्पर को)
बींध रहे थे । फारक्क को धारण करनेवाले एक-दूसरे पर टूट पड़े, और कुंतवाले कुन्त
धारण करनेवाले प्रतिपक्षियों से भिड़ पड़े । (4) दूरयरोसारिय रयपसरे, परिकलिऐं परोप्परु अप्प-परे । संवाहिय संदण भयरहिया, पच्चारयत पहरहिँ रहिया ॥
- वही - रज का प्रसार दूरतर अपसृत हो जाने पर, परस्पर अपने पराये को पहचान कर, (शत्रुपक्ष
के) रथियों को प्रहारों से आह्वान करते हुए, निर्भय होकर रथ चलाये गये ।