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अपभ्रंश-भारती-2
जुलाई, 1992
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अपभ्रंश काव्य का
छंदोविवेचन
• डॉ. विनीता जोशी
गद्य की अपेक्षा पद्य की सम्प्रेषणीयता अधिक मुखर होती है, कारण है, काव्य में छंद और लय का योग रहता है । इसके अतिरिक्त हृदयतत्त्व के साथ तादात्म्य भी शीघ्र हो जाता है । छंद भावों को आच्छादित कर उनके सौन्दर्यवर्द्धन में सहायक होते हैं । उसका लयात्मक वैशिष्ट्य सम्प्रेषणीयता व काव्यानन्द दोनों की अभिवृद्धि करता है अतः छंद काव्य का आवश्यक उपादान
____ छंद दो प्रकार के होते हैं - (1) वर्णिक, (2) मात्रिक । प्रत्येक छंद में वर्णों या मात्राओं की संख्या निश्चित रहती है । गति-यति व गुरु-लघु का क्रम भी निर्धारित रहता है । यति एक संगीतात्मक विराम है । मात्राओं के घटने-बढ़ने से आद्यन्त एक लय व्याप्त रहती है । छंद को पहचानने में यही लय सहायक होती है ।
छंद की दृष्टि से अपभ्रंश साहित्य पर्याप्त समृद्ध है । अधिकांश हिन्दी छदों का मूल अपभ्रंश के छंदों में देखा जा सकता है । अपभ्रंश के छंदों पर लोकभाषा के छंदों का प्रभाव है । ये लय-तालबद्ध, गेय और नाद-सौन्दर्य से परिपूर्ण हैं । अपभ्रंश में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं। अन्तर्यमक की योजना अपभ्रंश-छंदों की उल्लेखनीय विशेषता है ।
अपभ्रंश-प्रबन्ध-काव्य की एक मौलिक विशेषता है -सधि-कड़वक शैली । इसके अन्तर्गत तीन प्रकार के छंदों का प्रयोग किया जाता है - कड़वक का मुख्य छंद, आरम्भक और अन्त का धूवक अथवा घत्ता । सोलहमात्रिक छंद 'पद्धडिया' कड़वक के मुख्य छंद के रूप में निर्दिष्ट