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अपभ्रंश-भारती-2
दूसरी ओर उसका स्वामी जुत रहा है । स्वामी के इस गुरु भार पर वह आँसू बहाता है - कि मुझे ही दो खंडों में करके दोनों दिशाओं में क्यों नहीं जोत दिया जाता -
धवलु विसूरड़ सामिअहो गरुआ भरु पिक्खेवि ।
हउँ कि न जुत्तउ दुहुँ दिसिहि खण्डई दोण्णि करेवि ।" कहना नहीं है कि प्रेमचंद के 'पूस की रात' के हलकू और 'गोदान' के होरी की पीड़ा भी इसके आगे हलकी पड़ जाती है ।
अपभ्रंश के इन दोहों में लोकसंपृक्तता का जो नया स्वर सुनाई पड़ता है वह भी आज के जीवन के लिए कम प्रासगिक नहीं है । साम्प्रदायिकता विहीन, सहज, स्वसंवेदमार्गी कवियों के ये दोहे आदमी से आदमी की पहचान कराते हैं । सब प्रकार की जकड़बन्दियों को तोड़कर मानव और मानवीयता को तरजीह दते हैं । समरसता, सहजता, संतोष और आदमी के निर्माण में विश्वास करते हैं । 'काण्हपा' कहते हैं कि - 'समरस में अपना मन रागानुरक्त कर, जिसने सहज में ध्यान स्थिर किया वह उसी क्षण सिद्ध बन गया और जरामरण के भय से मुक्त हो गया' -
सहजे णिच्चल जेण किअ, समरसे णिअ-मण राअ ।
सिद्धो सो पुण तक्खणे, णउ' जरामरणह भाअ । देवसेन कहते हैं कि - लोकप्रसिद्धि है कि धर्म से सुख और पाप से दुःख होता है, इसलिए ऐसा धर्माचरण करो जिसमें सबका हित हो -
धम्मे सुह पावेण दुहु, एह पसिद्धउ लोइ ।
तम्हा धम्म समायरहि जेहिय इंछिउ होइ ।1 विभेदपरक, सहजता एवं समानता का जीवन काम्य है -
हउँ गोरउ हउँ सामलउ हउँ जि विभिण्णउ वण्णु ।
'हउँ तणु-अंगउँ थूलु हउँ एहउँ मूढउ मण्णु ।” इसी प्रकार ये कवि लोक-संवेद्य सहृदयता और उदारता के साथ सभी देवताओं और धर्मों को सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, देवों का देह में निवास मानते हैं और कोई भेद-भाव नहीं मानते। आज भी ऐसी लोकधर्मी मान्यताओं की कितनी सार्थकता है, सहज विचारणीय है -
सो सिउ संकरु विण्हु सो, सो रुद्द वि सो बुद्ध । सो जिणु ईसरु बभु सो, सो अणतु सो सिद्ध । एहि लक्खण लक्खियउ, जो पर णिकलु देउ । देहहँ मज्झहिं सो वसइ, तासु ण विज्जह भेउ ।।
1. हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का योग, डॉ. नामवर सिंह, पृष्ठ 3 । 2. वाक्यपदीयम्, ब्रह्मकांड, भर्तृहरि, पृ. 148 । 3. पुरानी हिंदी, पं. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी, पृ. 8 । 4. महाभाष्यम्-किलहान संस्करण, भाग 1, पृ. 6, तथा 4683; भाग 3, पृ. 359 (पर अपभ्रंश
शब्द पर विचार का संदभ) ।