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શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ [ १६:२१ मक्खी गिर पड़ी, भांडाशाहने उसे तुरंत निकाल कर राख पर डाल दी और अंगुली पर लगे घीको अपनी जूती पर रगड़ लिया। पास खड़े एक शिल्पीने सोचा कि यह सेठ बड़ा ही कंजूस मालूम होता है। जो व्यक्ति इतनेसे घीका भी विचार करता है वह मंदिर क्या बनवायेगा। परीक्षार्थ शिल्पीने जब नींव भरनेका समय आया, तब सेठसे कहा कि प्रासादके सुदृढ़ और निरुपद्रव होनेके लिए नींवमें घी और खोपरोंका डाला जाना आवश्यक है। भांडाशाहने कहा कि चाहो जितना घी घरसे मंगवा लो और तुरंत अपने सेवकोंसे सैकड़ों मन घीके कुप्पे मंगवाकर नींवमें डलवाने लगा। शिल्पी सेठकी इस धार्मिक भावनाको देखकर अवाक् रह गया । और घी डलवाना बंध कर अपने विचार प्रगट किये कि मैंने आपको परीक्षाके लिए ही यह बात कही थी। भांडाशाहने कहा कि भाई हम लोग फिजूलमें थोड़ी भी वस्तु न गवाँकर शुभ कार्यमें आवश्यकतानुसार बड़ी से बड़ी सम्पत्तिको भी लगानेमें नहीं हिलकते । इससे शिल्पीको बहुत उत्साह मिला और उसने अपनी ओरसे मंदिरको सुदृढ़ और दर्शनीय बनानेमें कोई कसर न रक्खी । भव्य रंगमंडप, विशाल गुंफन और शिखर की निर्माण-कला देखते ही बनता है। गर्भगृहकी भमती (प्रदक्षिणा )ने भरतमुनिके नाट्यशास्त्रसे समर्थित वाद्ययंत्रधारी और नृत्यरत देव-देवियोंको अंकित करने में शिल्पकारने अपने हृदय और मस्तिष्ककी एकाग्र वृत्तिको छेनी और हथौड़ीकी सहायतासे प्रस्तर खंडको कलाका साकार रूप दिया है। इसके पुतलियोंकी भाव-भंगिमा विविध सात्त्विक और भक्तिपूर्ण अभिव्यक्तिका केन्द्र है। मंदिर में १२ स्तंभ हैं। तीनों मंजिलोंमें चौमुख जिनप्रतिमाएं विराजमान हैं । ऊपरकी मंजिलसे बीकानेर नगरका दृश्य बहुत ही सुन्दर दिखाई देता है। मंदिरका शिखर बहुत दूरसे दिखाई देता है।
शिल्पकी दृष्टि से तो यह मंदिर बहुत ही महत्त्वपूर्ण है । प्रदक्षिणाका स्थापत्य चार भागोंमें विभक्त होता है। चार दिशाओंमें चार मूर्तियां है, जिनमें सामने द्वार है और जालियां हैं। प्रत्येक कक्षमें छः कायोत्सर्ग मुद्रास्थित जिन मूर्तियां है। दो-दो यक्ष प्रतिमा, चार-चार भावभंगिमावाली, नृत्यवाजिंत्रवाली १६ पुतलियां-इस प्रकार कुल ४८ मूर्तियां हैं। इसके परिकर, वाहन, वस्त्र और मुद्राएं भिन्न-भिन्न हैं। मूर्तियोंकी ऊंचाई ३ फुट, ८ इंच और चौड़ाई २ फुट है।
विगत अर्ध-शताब्दिमें इस शिल्पकलापूर्ण जिनालयको चित्रकलाकी दृष्टि से भी खूब समृद्ध किया गया। बीकानेरके सुप्रसिद्ध चित्रकार मुरादवक्षने संवत १९६० से ४ वर्ष तक निरंतर
और फिर समय-समय पर नाना चित्रों का निर्माण और सुनहरा 'मनौति काम' करके इस जिनालयके सौंदर्यमें अभिवृद्धि की । बाह्य सभामंडपके गुंबजमें सुजानगढ़का मंदिर, स्थूलभद्रदीक्षा, वेश्या-प्रतिबोध, भरतबाहुबलि-युद्ध, ऋषभदेवके १०० पुत्रोंका प्रतिबोध, दादाबाड़ी,
[ मा : मनुसंधान पृ. 2142 or lad]
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