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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष : २० था ? इस महत्त्वपूर्ण टीकाका प्रकाशन अतिशीघ्र वांछनीय है। (५) नैषधवृत्ति-संवत् १५११ के वैशाख सुदि माधव तिथिको इसकी पूर्णता हुई। यह टीका भी बहुत ही उत्तम है । इसके आरंभमें लिखा है कि यद्यपि इस पर बहुतसी टीकाएं विद्यमान हैं, पर मेरा यह प्रयत्न विशेषताको लिये हुए ही होगा “ यद्यपि वह्वयष्टीकाः, सन्ति मनोज्ञास्तथापि कुत्रापि । एषा विशेषजननी भविष्यतीत्यत्र मे यत्नः ॥ ६ ॥ इसकी २१७ पत्रोंकी प्रति गुजराती सभा, कलकत्ताके पुस्तकालयमें है। " (६) शिशुपालवध टीका—इसमें रचनाकालके निर्देशवाली अन्तिम प्रशस्ति नहीं है । इसकी रचना देशलसंतानीय भैरवात्मज साधु सहस्रमल्लजीकी अभ्यर्थनासे हुई । इसकी अपूर्ण प्रति ‘अनूप संस्कृत लाइब्रेरी' और हमारे संग्रहमें तथा पूर्ण प्रति 'भांडारकर इंस्टीट्यूट में है। (७) कल्याणमंदिरवृत्ति-इसकी प्रति बड़ौदामें है, जो मेरे अबलोकनमें नहीं आई, अतः विशेष परिचय नहीं दिया जा सका। (८) भावारिवारणवृत्ति—इसकी प्रति पाटण भंडार आदिमें है । (९) राघवपांडवीय वृत्ति—इसका उल्लेख 'कैटलोग्सू कैटलोगोरम्' भाग एकके पृष्ठ ८५३में पाया जाता है । पर इसकी प्रति कहां है ? जानने में नहीं आयी। किसी विद्वानको इसकी प्रति प्राप्त व ज्ञात हो तो सूचित करें। उपर्युक्त ग्रंथपरिचयसे स्पष्ट है कि चारित्रवर्द्धनका कोई मौलिक ग्रंथ नहीं मिलता । समर्थ टीकाकारके रूपमें ही उनकी रचनाएं प्राप्त हैं। इनमें से पांच टीकाएं तो महाकाव्य पर हैं और तीन टीकाएं जैन स्तोत्रादिके उपर है। ___ यहाँ एक विशेष बातका उल्लेख करना भी आवश्यक है कि जिन श्रावकोंकी अभ्यर्थनासे ऐसे महाकाव्यादि पर टीकाएं रची गयो, वे सभी श्रावक श्रीमाल ज्ञातिके थे और वे भी बहुत साहित्यरसिक और काव्यप्रेमी होने चाहिये । अतः उनके संबंधित प्रशस्तियां दी जा रही है। ___श्री. चारित्रवर्द्धन पद्मावती देवीके विशेष भक्त प्रतीत होते हैं । इन्होंने अपनी टीकाओंके प्रारंभमें पद्मावतीको सादर प्रणाम किया है। वैसे ये 'जिनप्रभसूरि 'की परम्परामें थे । पद्मावती देवी उनकी भी सांनिध्यकारी रही है । जिनप्रभसूरि रचित 'पद्मावती चउपई' 'भैरवपद्मावती-कल्प में छपी है। श्री. चारित्रवर्द्धनकी विद्वत्प्रतिभाको देखते हुए उनके और ग्रन्थ भी मिलने चहिये, जिनकी खोज अत्यावश्यक है । यदि इस लेखसे प्रेरणा पाकर इनके अज्ञात ग्रंथोकी खोज की गई For Private And Personal Use Only
SR No.521717
Book TitleJain_Satyaprakash 1955 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1955
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
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