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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १८] શ્રી. જૈન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष : २० गमन भी सीमित है। बांधकी दीवाल भोजपुरके मन्दिर तक चली गई है। इतना विस्तृत, सुदृढ़ और सुन्दर बांध तात्कालिक जानतिक सुविधाओंके प्रति शासनकी जागरुकताका स्मरणीय प्रतीक है । बंगरसिया गांव इसी बांधकी सुदृढ़ दीवाल पर बसा जान पड़ता है। बांधकी व्यापक परिधिको देखते हुए ज्ञात होता है कि उन दिनों जल स्थगन-कला कैसी उच्च सीमा तक पहुंच चुकी थी ? मौर्यकालमें भी अशोक द्वारा सिंचाई के लिये नहरोकी व्यवस्था थी। मोहन-जो-दारो तथा नालन्दाके खण्डहरों में बनी नालियां क्रमशः नगरनिर्माण कलाकी विकासात्मक परम्पराकी और इंगित करती है । प्रस्तुत बांधका जितना उन दिनों सांस्कृतिक महत्त्व था उससे भी कहीं अधिक आज उसका कलात्मक गौरव है । प्रेक्षकको आश्चर्य होता है कि वर्षों तक अरक्षित, उपेक्षित रहनेके पश्चात् आज भी ऐसा लगता है कि इसमें कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। कुछ परिवर्तनके साथ भविष्यमें सिंचाई के लिए इसका उपयोग किया जा सकता है । बान्धकी दीवालके पीछे घने वन हैं। यद्यपि कीरतपुरसे एक मील कुछ मेदानका भाग पड जानेसे बांध तिरछा हो चला है जो भोजपुरके मन्दिर तक चला गया है। गाड़ीदानके दाहिनी ओर कालियासोत प्रवाहित है। कीरतपुरके समीप आने पर छोटीसी टेकरी पर बना मन्दिर दिखलाई पड़ता है जो किसी समय सम्पूर्ण मालवका पुनित श्रद्धा केन्द्र था। हजारोंकी धार्मिक भावना तो आज भी इसके साथ जुड़ी हुई है। निःसन्देह आध्यात्मिक साधना और लोकचेतनाको उद्दीपित करनेवाला यह ध्वस्त कलामन्दिर सहृदय प्रेक्षक और कलाकारको स्पंदित करता है। पत्थरोंकी जाज्वल्यमान कलात्मक परम्परा सचमुच दूरसे ही जनमन उन्नयन कर सौंदर्यमूलक दृष्टि प्रदान करती है। दूरसे ही इस खण्डहरके शिल्पियोंके प्रति श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह मन्दिरके निकट जाने पर अविस्मरणीय भावनाके रूपमें परिवर्तित हो जाती है। कीरतपुर ग्राम सचमुच भोजपुरकी उदात्त व उज्ज्वल कीर्तिका प्रतीक जान पड़ता है। निश्छल कीर्तिका प्रकाश श्रद्धालु और बुद्धिजीवियों को विशिष्ट प्रकारको प्रेरणा देता है । हरे भरे लहलहाते खेत, पहाड़ी और वनमें अठखेलियां लेती हुई प्रकृति भोजपुरके पार्थिव सौंदर्यको सहज भावसे आत्मसात् करनेको प्रेरित करती है। सहसा वागी मुखरित हो उठती है। प्रकृति और संस्कृतिके समन्वयात्मक संगम पर कलाका यह क्षेत्र मानव साधनाका पुनित धाम है। परिस्थितिजन्य यह निर्माण स्थायी प्रेरणाका एक ऐसा स्रोत है जिसके प्रवाहकी प्रत्येक शाखा ओज, बल और सौन्दर्यसे परिप्लावित है। किसी समय सुमधुर घंटानादकी प्रतिध्वनि प्रकृतिके नीरव क्षेत्रमें गुञ्जरित होती होगी किन्तु आज वहां मानव ध्वनि भी कठिनतासे ही सुनाई पड़ती है। वेत्रवतीको चीरकर उन लघुतम चट्टानों पर चढ़ना पड़ता है जिसकी सर्वोच्च शिला पर १. श्री नन्दलाल डे द्वारा रचित 'एश्यन्ट ज्योग्राफीकल डिक्शनरी में साबरमतीको एक शाखा वेत्रवती-वात्रक माना है- वृत्रन्धि भी माना है। For Private And Personal Use Only
SR No.521715
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages30
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size14 MB
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