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શ્રી. જેન સત્ય પ્રકાશ [वर्ष : १६ व्यक्ति थे । यति श्री रघुनाथ रचित लोकागच्छ पट्टावली प्रबंधकी दो प्रतियां मेरे संग्रहमें सुरक्षित है जिसमें आचार्यश्रीका परिचय इस प्रकार दिया है-आचार्य लक्ष्मीचंद्र हर्षचंद्रसूरिके पट्टधर थे। जन्म सं० अज्ञात है। वे कोठारी जीवराजकी पत्नी जयरंगदेवीके पुत्र थे। सं० १८४२ में व्रत ग्रहण किया। अमृतसर, लाहोर, श्यालकोट, दिल्ली, रोपड, भरतपुर, बन्नु, लखनऊ, मकसूदाबाद, काशी, पटना, कोटा, नागोर, फलोधी, बीकानेर, बाला, बनूड, नालागढ, आदि नगरोंमें आपका विहार हुआ था । सं० १८६० का चातुर्मास पतियालामें हुआ जब रघुनाथ ऋषिने अपनी पट्टावली पूर्ण की। बीकानेर नरेश रत्नसिंहने आपको रजतकी छडी दे कर सम्मानित किया था।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि प्रस्तुत पत्रके प्रणेता पट्टावलीकार रघुनाथ ऋषि ही है। ये स्वयं संस्कृत भाषा और साहित्यके अच्छे विद्वान थे। स्वतंत्र ग्रन्थोंके अतिरिक्त महिम्नादि स्तोत्र इनके कवित्वपूर्ण पाण्डित्यके परिचायक हैं। ___ आपने पंजाब में रह कर जैन संस्कृतिकी उल्लेखनीय सेवा की है। सं० १८६३ में आचार्यका चातुर्मास चूरू में था। वहां आपकी सेवामें यह पत्र भेजा गया था। मनसूरके प्रधानमंत्री चयनसिंह व उनके परिवारवालों-जैसे दयालुसिंह, हमीरसिंह, और कपूरसिंहका इसमें उल्लेख है। नगरके श्रावकोंका उल्लेख भी यथास्थान निर्दिष्ट है। रचना प्रासादिक गुणयुक्त है । मूल पत्र इस प्रकार है
॥ नमः श्रीसकलकलनाय भवतु सततम् ॥ ॥ नमोऽर्हद्भ्यः ॥ दोहा छन्दः संस्कृते ॥ सुधासमानोदर्य्यवाग्विलासरञ्जितनृपाः । श्रीपूज्याः कविवर्यरत्नै रक्ष्या गुरुकृपा ॥१॥ श्रीमत्पदप्रणतस्य मे विज्ञपनीयमिदं तु ।
अत्रभवन्त सर्वदा निजहृदये प्रविदन्तु ॥ २ ॥ इदं दोहाछन्दः ॥ प्रथमं सोरठा नामकम् । अथ संस्कृतमयकवित्वम् -
श्रीश्रीपूज्यलक्ष्मीचन्द्रजिन्मुनीन्द्रवृन्दचन्द्र ! चिरं जीव समविपुलमहामते ! । सदा रक्ष कृपादृष्टिमिष्टरूपशिष्टशिष्टिकारिणि प्रकृष्टकृष्टि वन्दय साधुतापतेः ।। शोभनगुणसंचयो विशदस्ते महाशयोदारतरशीलमयो मामके तु मानसे । कोविदकुलावतंस ! संवसति शुद्धवंशलुंकागणपद्महंस ! हंस इव मानसे ॥ १ ॥
कदा तदा गमिष्यति प्रभूतपुण्यजं दिनम् । यदा भवत्सुदर्शनं सुखावहं भविष्यति ॥ २ ॥ प्रमाणिकेयम् इत्यलम्, किमनल्पलिखनेन ? कामे मतिरस्ति यया श्रीश्रीपूज्यपादानां गुणगणगणना विदधीयाहं, इयतैव तोषो भवतु वः ।।
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