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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'रेलुआ' संज्ञक पांच रचनाएं. लेखक : श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा प्रत्येक वस्तुकी संज्ञाका कुछ न कुछ कारण होता है। उस संज्ञाकी अपनी परंपरा होती है जिसका अन्वेषण बडा रोचक और ज्ञानवर्द्धक होता है । साहित्यिक रचनाओंके नामोंके भी विविध प्रकार हैं। कई रचनाओंकी उसके आद्य पदसे प्रसिद्धि हो जाती है जैसे 'भक्तामर' 'कल्याणमंदिर' आदि । कई रचनाओंका नामकरण उनके विषय पर तथा कई रचनाओंका पदसंख्याके। आधार पर। लोकभाषाकी रचनाओंमें उनके विशेष ढांचे-वर्ण्य-विषय, छंद आदिके आधारसे सेंकेड़ों संज्ञाएं पायी जाती हैं। जैसे- फागु, वीवाहलउ, रास, भास, धवल, धमाल, चर्चरी, वेलि, संवाद, संधि, पवाड़ा आदि सेंकड़ों राजस्थानी एवं गूजराती भाषा की जैन रचनाएं पायी जाती हैं। जिनमें से कुछ रचनाओंका परिचय मैंने एवं प्रो. हीरालाल रसिकदास कापड़ियाने जैन सत्यप्रकाश, जैन धर्मप्रकाश, राजस्थानी, कल्पना, श्रमण आदिमें प्रकाशित किया है। ऐसी रचनाओंकी लगभग १२५ संज्ञाएं। मैंने एकत्र की हैं जिनमेंसे कुछ पर अपने राजस्थान विश्वविद्यापीठ उदयपुरके सूर्यमल आसनमें दिये। हए भाषण-"राजस्थानी जैन साहित्य" शीर्षकमें प्रकाश डाला है। प्रस्तुत लेखमें एक ऐसी अप्रसिद्ध संज्ञावाली रचनाका परिचय दिया जा रहा है जिसका आज तक जैन गूर्जर कविओ आदि किसी ग्रंथमें उल्लेख देखनेमें नहीं आया । बारह वर्ष हुए, जैसलमेरके ज्ञानभंडारोंका अवलोकन करनेके लिए हम प्रथम वार जब वहां पहुंचे तो वहांके बड़े ज्ञानभंडार आदिकी समस्त कृतियोंका भलीभांति अवलोकन कर कतिपय प्राचीन संग्रह प्रतियोंमेंसे प्राचीन राजस्थानीकी रचनाओंकी प्रतिलिपियां की। तभी सर्व प्रथम हमें 'रेलुआ' संज्ञक चार पांच रचनाओंकी उपलब्धि हुई जो सभी खरतरगच्छीय रचनायें हैं; और उनका रचनाकाल सं. १३३१ से १३८९ के बीचका है । अभी तक इसके पहले और पीछेको किसी शताब्दीकी इस संज्ञावाली रचना हमारे जानने में नहीं आयी। रेलुआ' संज्ञावाली प्राप्त रचनाओंमें उनके रचयिताओंने कहीं भी इस नामका प्रयोग नहीं किया है। उन रचनाओंके इस संज्ञाका उल्लेख प्रतिलेखन पुष्पिकामें पाया जाता है। प्राप्त सभी रचनाओंका छंद एक ही प्रकारका है, और लोकगीतोंकी भांति पहले पद्यके अनंतर प्रत्येक गाथाके। बाद दुहरायी जानेवाली आंचळी' पायी जाती है, इससे रेलुआ नामक किसी लोकगीतकी चालमें। इन गीतोंका निर्माण हुआ है और इसी कारण इन रचनाओंके अंतमें "रेलुआ' संज्ञाका प्रयोग वर दिया गया है। रेलुआ' को कहीं 'रेल्हुआ' भी लिखा है। ये लोकगीत मूलरूपमें क्या था, इसका पता लगाना आवश्यक है। प्राप्त रचनाओंमें 'सालिभद्र रेलुआ' भगवान महावीरकालीन मुनिराजके संबन्ध तथा अवशिष्ट सभी खरतरगच्छाचार्यों या उनकी परंपरासे संबन्धित है । जैसलमेरके बडा उपाश्रय स्थित पंचायती भंडारमें सं. १४३७ वैशाख शु० २ खरतरगच्छाचार्य जिनराजसूरिजीके उपदेशसे व्य० देदाकी पुत्री मांकू श्राविकाने लिखायी हुई स्वाध्याय पुस्तिका लिखी थी जिसके प्रारंभ एवं मध्यके। कई पत्र प्राप्त नहीं हैं, ये रेलआ संज्ञक रचनाएं इसी प्रतिमें प्राप्त हुई हैं। प्राप्य रचनाओंकी। सूची इस प्रकार है:१ जिनकुशलसूरि रेल्हुआ गा.१० जयधर्मगणि पत्रांक ४१२ में २ शालिभद्र रेलुआ गा. ८ पत्रांक ४१४ ३ गुरावलो रेलुआ गा. १३ सोममूर्ति पत्रांक ४३८ [ अनुसबान पृष्ठ : १८२ गुमा] । For Private And Personal use only
SR No.521712
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size11 MB
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