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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कविवर सुरचन्द्र विरचित 'पदैकविंशति' ग्रन्थ लेखकः-श्रीयुत अगरचंदजी, भंवरलालजी नाहटा सतरहवीं शतीके जैन कवियोंमें वाचक सूरचन्द्र उल्लेखनीय विद्वान हो गये हैं । आप खरतरगच्छकी श्रीजिनभद्रसूरि परम्परामें वा. चारित्रोदयके शिष्य पाठक वीरकलशके शिष्य थे। वीस वर्ष पूर्व अपने 'युगप्रधान श्रोजिनचन्द्रसूरि' ग्रन्थमें सूरिजीके आज्ञानुवर्ती विद्वान मुनियोंका परिचय लिखते हुए आपका भी संक्षिप्त परिचय दिया गया था। 'जेन तत्त्वसार' मूल ग्रन्थ ही आपकी रचनाओंमेंसे तब तक प्रकाशित हुआ था। एवं बीकानेरके ज्ञानभंडारमें आपके रचित पंचतार्थी श्लेषालंकार चित्रीकी अपूर्ण प्रति प्राप्त थी। इन उभय प्रन्थोंसे ही आपकी विद्वत्ताका अच्छा परिचय मिल जाता है। वैसे फुट कर स्तवन स्तोत्रादि उपलब्ध हैं ही। भाषा कृतियोंमें 'श्रीजिनसिंहसूरि रास' और गद्यका 'चातुर्मासिक व्याख्यान' उल्लेखनीय है। आपकी विद्वत्प्रतिभाको देखते हुए तभीसे यह आशा की थी कि और भी आपकी विद्वत्तापूर्ण बड़ी रचनाये मिलनी चाहिए । दो वर्ष पूर्व जोधपुरके श्रीकेशरियानाथजीके मन्दिर स्थित खरतरगच्छीय ज्ञानभंडारमें आपके रचित 'स्थूलिभद्र महाकाव्य 'की अपूर्ण प्रति प्राप्त हुई थी जिसका परिचय 'जैन भारती' वर्ष १३, अंक ६ में प्रकाशित किया जा चुका है। इतः पूर्व जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष १७, अंक १ में 'कविवर सूरचन्द्र और उनके ग्रन्थ' शीर्षक लेखमें आपका परिचय दिया गया था। सतरहवीं शतीके श्रावक कवि ऋषनदासने महाकवि सूरचन्द्रका जो उल्लेख किया है, हमारे ख्यालसे वे ही होने चाहिए। गत वर्ष आबूके संबन्धमें विचार विमर्श करनेके लिए राजस्थानके प्रधान मंत्री श्रीटीकाराम पालीवालके निमन्त्रणसे जयपुर जाता हुआ पुरातत्त्वाचार्य मुनिश्री जिनावेजय जीसे राजस्थान पुरातत्त्वमन्दिरमें नवीन प्राप्त कविपय वर्णनात्मक जैन. भाषा ग्रन्थोंके सम्बन्धमें बातचीत होने पर उन्होंने अपने संग्रहमें भी ऐसे एक ग्रन्थ होने की सूचना दी तो मुझे उसे देखनेकी उत्सुकता बढी । प्रतिको निकलवाकर देखने पर बड़ा ही हर्ष हुआ क्योंकि वह अद्यावधि सर्वथा अज्ञात कविवर सूरचन्द्रका रचित एक विशिष्ट ग्रन्थ था । विषयकी दृष्टिसे मौलिक होने के साथ साथ उसमें अन्य भी कतिपय विशेषताएं हैं। जिनमें से प्रसंग प्रसंग पर दिये गये लोक भाषाके विविध वर्णन जो लगभग ३० को संख्यामें हैं, विशेष रूपसे उल्लेख योग्य हैं। मूल ग्रन्थ संस्कृत पद्यमें है और वर्णन लोकभाषा गयमें है, यह विशेषता अन्यत्र कहीं देखनेको नहीं मिलती । खेद है कि ग्रन्थकी प्रति ९८ पत्रोंकी होते हुए भी, अपूर्ण ही मिली हैं इसमें ग्रन्थके For Private And Personal Use Only
SR No.521708
Book TitleJain_Satyaprakash 1954 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1954
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size11 MB
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