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२२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[१५ : १६ श्लोक १४, (९) कृपण, श्लोक ४, (१०) क्रोध, मान, माया, लोभ, श्लोक ५ और (११) सुपात्र-दान धर्म, श्लोक ७=कुल प्रक्रम ११, श्लोक ७५ । ग्रन्थका प्रारंभिक श्लोक इस प्रकार है:----
आनन्दमदिरममन्दमहच्च पात्रं, संसारपारगतमस्तसमस्तदोष ।
ज्ञानकविग्रहभवान्मनसाऽध्वनीनं, श्रेयांसि मांसलयितात् परमं महोदः॥ ग्रन्थनिर्माणका प्रयोजनः
प्राग्वाटवंशाजविकासमानौ, लक्ष्मीवतः पर्वतश्रेष्ठिसूनोः ।
अभ्यनीच्छ्रीधनराज[नाम्नः, प्रबोध]मालाममलां तनोमि ॥६॥ अर्थात्-ग्रन्थको रचना प्राग्वाटवंशीय पर्वतके पुत्र धनराजकी अभ्यर्थनासे की गई है । ग्रन्थकार संबंधी अंतिम पद्य इस प्रकार है:
कृष्णर्षिगच्छाम्बुज़राजहंसैः, पद्मावतंसैः नयचन्द्रसूरेः ।
प्रबोधमाला जयसिंहसूरिपूज्यैः कृतेयं कृतिनां प्रबंधैः ।। ७५ ॥ इतिश्री [प्राग्वाट-वंश मुकुटमणि मंत्री] श्रीधनराजप्रबोधमालायां सुपात्रदानधर्मप्रक्रमः समाप्तः ॥
इसके बाद जिस धनराजके लिये इस ग्रंथकी रचना कृष्णर्षिगच्छके नयचंद्रसूरिके शिष्य जयसिंहसूरिने की, उस धनराजके वंश एवं गुरुपरम्पराकी परिचायक प्रशस्ति दी हुई है ।
जिसके १५ वें श्लोकका कुछ अंश इसमें कम रह गया है । जिसके आगे गुरुवंश परम्पराका कुछ और परिचय और ग्रन्थरचना काल आदिका निर्देश होगा पर ये पद्य अप्राप्य हैं। प्रशस्तिके प्राप्त पद्य नीचे दिये जा रहे हैं। जिनसे धनराज शाकंभरी देशके रणथंभोरके शासक खिलजी अलाउद्दीनका विश्वसनीय मंत्री होनेका महत्त्वपूर्ण पता चलता है । धनराज चैत्रगच्छ, जो रत्नाकरसूरिके बाद रत्नाकरातपागच्छके नामसे प्रसिद्ध हुआ, के आचार्य रत्नसिंहसूरीजीका भक्त था । रत्नसिंहसूरिका समय 'वृद्ध-पौशालीय पट्टावली' एवं प्राप्त मूत्तिलेखोंके अनुसार सं. १४५२ से १५१८ तक का है। प्रस्तुत ग्रन्थकी रचना उनकी पट्टपरंपराके किसी आचार्यके समयमें हुई है।
इस समय रणथंभोरका शासक खिलजी--अलाउद्दीन था, जिसका समय सन् १५१० से १५३१ है । ग्रन्थकी रचना इसी बीच होनी चाहिए । अलाउद्दीन मालवेका सुलतान था। जो महमूद--द्वितीयके नामसे प्रसिद्ध है। मंत्री धनराज प्राग्वाटवंशीय अभयसिंहके पुत्र सोमसिंह, उसके पुत्र पर्वतका पुत्र था। उसकी माताका नाम पालणदेवी था । धर्मिणी और
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