SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 24
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir षट्दर्शनियोंके १०२ नाम लेखक :-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा सोलहवीं शतीके सुप्रसिद्ध गुजरातके जैन कवि लावण्यसमयने आबूके विमलवसहीके निर्माता मंत्री " विमल " दंडनायकके चरित्र संबंधी “विमलप्रबन्ध" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ सं० १५६८में मालसमुद्रमें बनाया । यह नौ खंडोंका सरल गुजराती काव्य है । इसमें विमलके अतिरिक्त भी तत्कालीन रीति-रिवाजों, व्यक्तियोंके नाम, जातियों संबंधी ऐतिहासिक निर्देश और अन्य अनेक ज्ञातव्य बातोंका स्थान स्थान पर अच्छा वर्णन है। इस कान्यके दो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। पहला संस्करण भीमसी माणक द्वारा मूलमात्रका है और दूसरा मणिलाल बकोरभाई व्यासने गुजराती अनुवाद और विस्तृत उपोद्घातके साथ सं० १९७०में प्रकाशित किया था । यह संस्करण अनुवादके साथ होनेके कारण महत्त्वपूर्ण है ही, पर इसका उपोद्धात भी एक स्वतंत्र ग्रंथके समान है । जिसको पृ० सं० १०२ है । इस संस्करणके पृ० ५६में द्वितीय खंडके अंतमें ८४ जाति, १८ वर्णकी नामावलीके साथसाथ छ दर्शन और उनके प्रत्येकके १६-१६ भेद होनेका उल्लेख पाया जाता है । यथा : बौद्ध सांख्य नैयायिक नाम, जैन अनै वैशेषिक ठाम । - जैमिनीय छ दर्शन जोय, मारगि धर्म चलावि सोय ॥ ८६ ॥ छ दर्शन ऐ वर्तेई वेद, सोल सोल एकेको भेद। सोल छक्क छात्रउ पाखंड, प्रगटियां प्रथवीमांहि प्रचंड ।। ८७॥ खंडि खंडि छि मति निरमली, भणतां सुणतां संपति मिली । मुनि लावण्यसमयची वाणी, एतलि बीजू खंड वरवाणी ।। ८८ ॥ उपर्युक्त पद्योंमें छ दर्शनियोंमेंसे प्रत्येकके १६-१६ कुल ९६ भेद होनेका उल्लेख किया है । पर इन भेदोंकी नामावली कहीं पर भी देखनेमें नहीं आई । अन्वेषण करते करते मुझे अपने संग्रहमें एक पत्र मिला । एक पत्र कलकत्तेसे और एक पत्र सिरोहीसे। ये तीनों पत्र फुटकर रूपमें हैं । इनमें छ दर्शनियोंके १७-१७ भेद कुल १०२ भेदोंकी नामावली मिली है । इसके बाद साथ ही नवनारू, नवकारू, छत्तीस राजवंश, ३४ सालाएं, १७ भक्षभोजन, २४ जातिकी सूची भी पाई गई है । इन नामोंकी सूची महत्त्वपूर्ण होनेसे प्रस्तुत लेखमें प्रकाशित की जा रही है। कवि लावण्यसमयने छ दर्शनियोंके १६-१६=९६ भेदोंका निर्देश किया है और प्राप्त तीनों पत्रोंमें १७-१७=१०२ भेदोके नाम हैं, इस अंतरके लिये दो संभावनाएं हो सकती हैं । या तो लावण्यसमयको ९६ नाम लिखे मिले या पीछेसे किसीने एक एक नाम बढाकर कुल छ नाम बढा दिये हों । पर प्राप्त पत्रोंमें कलकत्तेवाला पत्र १६वों या १७वीं के For Private And Personal Use Only
SR No.521698
Book TitleJain_Satyaprakash 1953 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy