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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मुनि सहजज्ञान रचित जिनलब्धिसूरि-जिनचंद्रसूरि विवाहलउ ย लेखक:- श्रीयुत अगरचंद नाहटा श्वेताम्बर जैनसम्प्रदाय के ८४ गच्छ कहे जाते । खरतरगच्छ उन्ही में से एक प्रधानगच्छ है । इसका प्राचीन नाम सुविहितगच्छ या विधिसंघ भी पाया जाता है । इस नाम - करणका कारण - उद्योतनसूरिजी के शिष्य वर्द्धमानसूरि और उनके शिष्य जिनेश्वरसूरिका चैत्यवासका विरोध एवं सुविहित मार्गका प्रचार करना है । पाटणके नृपति दुर्लभराजकी सभामें चैत्यवाश्रियोंसे इन्होंने शास्त्रार्थ किया एवं विजय प्राप्त की तबसे सुविहित मार्गके प्रचारको बड़ा बल मिला। इससे पूर्व चैत्यवासी लोग सुविहित आचारके पालन करनेवाले साधुओंको पाटणादिमें ठहरनेके लिये स्थान प्राप्त करनेमें भी बाधा डालते थे । शिथिलाचारका विरोध करनेवालोंके लिये स्वयं विशुद्ध- खरा आचरण करना परमावश्यक है और असिधारा सदृश भ० महावीरके प्ररूपित साध्वाचारको पालनवालोंका समुदाय विशुद्धतर आचार पालन करनेसे " खरतर " कहलाया । सौभाग्यवश इनकी परम्परा में मुनिराज आचारनिष्ठता के साथ बड़े विद्वान भी हुए और इन दोनों सद्गुणों के मणि-कांचन सुयोगसे थोड़े ही वर्षोंमें इनका प्रभाव बहुत विस्तार पाया । वर्द्धमानसूरिके दो विद्वान शिष्य थे- जिनेश्वरसूरि और उनके भ्राता बुद्धिसागरसूरि । इनमें से जिनेश्वरसूरिने ' पंचलिंगी प्रकरण, षटस्थानक प्रकरण, हरिभद्र अष्टकवृत्ति, कथाकोश वृत्तिसहित कथा व प्रमालक्ष्म' नामक न्यायग्रन्थकी रचना की एवं बुद्धिसागरसूरिने 'बुद्धिसागर या शब्दलक्ष्यलक्ष्म' नामक व्याकरणकी रचना की । श्व. सम्प्रदायका यह सर्वप्रथम व्याकरण है । जिनेश्वरसूरके दो विद्वान शिष्यों में जिनचंद्रसूरिजीने ' संवेगरंगशाला' नामक ( १८ हजार श्लोक परिमाणवाले) प्राकृत ग्रन्थकी रचना की और अभयदेवसूरि तो नवाङ्ग वृत्तिकार के रूपमें समस्त श्वे. समाजमें मान्य ग्रन्थकार हैं। आपके अन्य भी अनेक ग्रन्थ प्राप्त हैं । इनके शिष्य जिनवल्लभसूरिजी उद्भट विद्वानोंमेंसे हैं, जिनके अनेक काव्य एवं सैद्धांतिक ग्रन्थ और स्तोत्र उपलब्ध हैं । आपके पट्टधर युगप्रधान जिनदत्तसूरि तो बड़े ही प्रभावक आचार्य हो गये हैं, जिनकी बड़े दादाजीके नामसे सर्वत्र प्रसिद्धि है । आपके समस्त ग्रन्थ प्रकाशित हैं और हमने आपकी जीवनी भी प्रकाशित की है। इनके पट्टधर मणिधारी जिनचंद्रसूरि तेजस्वी आचार्य थे । केवल २६ वर्षकी आयुमें स्वर्गवास हो जाने से आपकी कोई बड़ी रचना उपलब्ध नहीं है । आपके शिष्य जिनपतिसूरिकी विद्वत्ता की धाक राजसभा I For Private And Personal Use Only
SR No.521691
Book TitleJain_Satyaprakash 1952 08
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1952
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size13 MB
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