SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 2
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बारह भावनाके साहित्यके बारेमें विशेष ज्ञातव्य लेखक-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा । 'श्री जैन सत्य प्रकाश' के गत-१४८३ अंकमें प्रो. हीरालाल र. कापडियाका 'बार भावनातुं साहित्य' शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। कापडियाजीका विविध विषय एवं प्रकारके जैन साहित्य पर प्रकाश डालनेका प्रयत्न बहुत ही सुन्दर है। अन्य विद्वान मुनियों एवं विद्वानोंको भी इस ओर ध्यान देना चाहिए । ऐसे लेखोंसे हमें हमारे विविध साहित्य के विकास एवं विशालताका परिचय मिलता है। समय समय पर मैं कतिपय लेखों के सम्बन्धमें विशष ज्ञातव्य इसी पत्र में प्रकाशित करता रहा हु और करते रहने की भावना है। मानवजीवनमें सदविचारोंकी बहुत ही उपयोगिता है। भावनाका भी उसीमें समावेश होता है। हमारा मन बडा ही चंचल है; प्रतिसमय वह कभी अच्छा कभी बुरा विचार करता ही रहता है । बुरे विचारोंको हटाने के लिये अच्छे विचारों का बल बढाना बहुत ही आवश्यक है । जैन महापुरुषोंने इसीके लिये कई प्रकारको भावनाओं का निर्देश किया है । जैन धर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है, अतः जिन विचारोंसे हमारो देहासक्ति, धन कुटुम्ब परिवारको ममता घटे उसके। लिये बारह भावनाओंको साधनके रूपमें उपस्थित की है और इनका सम्बन्ध निजेरातत्त्व के साथ जोडा गया है। अर्थात् इनसे बहिर्मुखी वृत्ति हट कर हम अन्तर्मुखी बनते हैं और आत्मनिष्ठ होते ही हमारे अशुभ विचार एवं पूर्वसंचित कर्म से हमारा निपटारा होता है। बारह भावनाका साहित्य बहुत विशाल है। कापडियाजीने जो सूची उपस्थित की है उतना ही साहित्य और भी मिल सकता है। मेरी जानकारीमें भी अनेक ऐसे ग्रन्थ आये हैं जिनमें बारह भावनाओंका विवरण है । पर अभी वह मेरे सामने नहीं है अत: विशेष विचारणा भविष्यमें की जायगी। यहां तो दो-चार बातों पर ही प्रकाश डाला जा रहा है। १. दि. आचार्य कुन्दकुन्दका समय कई विद्वान प्रथम शताब्दी मानते हैं, पर वह सही नहीं प्रतीत होता। उनके रचित प्रन्थों पर गंभीरतासे विचार करने पर तीसरी शताब्दीके पहेलेका संभव नहीं है। इसके सम्बन्धमें मैंने अपने "आ. कुन्दकुन्दके समयनिर्णयकी उपेक्षिता दिशा" शीर्षक लेखमें विद्वानोंका ध्यान आकर्षित किया है, जो जैन सन्देश' . १, अं. ४०में प्रकाशित है। २जयदेवकी भावनासंधि हमारे संग्रहको सं.१४९३ में लिखित प्रतिमें भी है। ३ भारह भावनाके रचयिता सकलमुनि निश्चित रूपसे तपागच्छीय हीरविजयमूरिशिष्य सकलचन्द्र ही हैं। उनकी अन्य रचनाओं में भी यही नाम અનુચ ધાન-ટાઇટલના ત્રીજા પાને For Private And Personal use only
SR No.521640
Book TitleJain_Satyaprakash 1948 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1948
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy