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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेरुतुंगसूरिरास-सार (लेखक :-श्रीयुत भंवरलालजी नाहटा) ऐतिहासिक साहित्यके निर्माण की ओर जैन विद्वानोंका लक्ष सदासे रहा है। रास, भास, गीत, गहूली, विवाहला, तीर्थमाला प्रभृति भाषा कृतियें; काव्य, पट्टावली, चरित्र प्रभृति संस्कृत ग्रन्थोंका प्राचुर्य इस बातका प्रबल उदाहरण है। हमें इस प्रकारके साधन प्रचुरता से उपलब्ध हुए, जिनमें से कतिपय तो ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रहमें हमने प्रकाशित किये, फिर भी जो प्राप्त होते हैं उन्हें समय २ पर सामायिक पत्रों में देते रहते है, जिससे जैन इतिहासके साधन विद्वानों के उपयोगमें आ सकें। कुछ वर्ष पूर्व मेरुतुंगसूरिरासको नकल कलकत्तेमें इतिहासतत्त्वमहोदधि जैनाचार्य श्री विजयेन्द्रसूरिजीके पास देखी और उसका आवश्यक सार नोट कर लिया था, परन्तु कई स्थान संदिग्ध रह जाने से अभी लींबडीके भण्डार से रास की मूल प्रति मंगा कर नकल कर ली और पाठकों की जानकारीके लिए उसका ऐतिहासिक सार प्रकाशित किया जाता है। ___ अंचलगच्छमें श्री मेरुतुंगसूरिजी बडे प्रभावक और विद्वान आचार्य हुए हैं। अंचल गच्छीय म्होटी पट्टावली ( गुजराती अनुवाद ) जो कच्छ-अंजारवाले सा. सोमचंद धारसीकी तरफसे प्रकाशित हुई है, उस में ५७ ३ पट्टधर श्री मेरुतुंगसूरिका जीवनवृत्त प्रकाशित हुआ है, परन्तु कई बातें जनश्रुति आदिके आधार से लिखी हुई है, जो ऐतिहासिक दृष्टि से संशोधन की अपेक्षा रखती है। प्रस्तुत रास सूरिजीके समकालीन-उनके स्वर्गवासके बाद संभवतः शीघ्र ही-चित होने से इसमें वणित वृतान्त प्रमाणिक है। कुछ बातें पट्टावलीमें विशेष है, खैर जो हो, जिन बातों में अन्तर है उनका दिग्दर्शन करना ही यहां अभीष्ट है १ पट्टावलीमें सूरिजीका जन्मस्थान नानागाम और जाति मीडिया वहुरा लिखा है, जब कि रासमें नाणीग्राम में प्राग्वाट बहुरा जातिमें जन्म होनेका उल्लेख है। २ माताका नाम पट्टावलीमें नाहुणदेवी और रासमें नालदेवी लिखा है। ३ दीक्षा संवत् पट्टावलोमें सं. १४१८ और रास में सं. १४१० लिखा है। ४ गृहस्थ नाम पट्टावलीमें भालग तथा रासमें वास्तगकुमार लिखा है। ५ लोलाडईके नृप प्रतिबोधकी कथा पट्टावली में नहीं है, उसमें यवन सेनाके भय निवर्तनार्थ सवा मन चावल मंत्रित कर देने और श्रावकोंद्वारा उस नाके समक्ष फैंकने से शस्त्रधारी धुडसवार होनेसे यवनसेनाके भग जानेसे भयाने वर्तन की कथा लिखी है । ६ पट्टावलीमें महेन्द्रप्रभसूरिका सं. १४४४ में स्वर्गस्थ होना लिखा है, रासमें सं. १४४५ फा. ब. ११ के दिन (मेरुतुंगसूरिका) महेन्द्रप्रभमूरिके द्वारा गच्छनायकपद स्थापित करनेका उल्लेख हैं। For Private And Personal Use Only
SR No.521636
Book TitleJain_Satyaprakash 1947 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1947
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size16 MB
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