SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 8
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 'त्रैलोक्यप्रकाश'का हिन्दी अनुवाद लेखक-पंडित श्री भगवानदासजी जैन, जयपुर अगाध जैन साहित्यमें ज्योतिष गणित शिल्प सामुद्रिक वैद्यक मंत्रतंत्रादिके कल्प इत्यादि जैनाचार्योंके बनाये हुए विज्ञानविषयके अनेक ग्रन्थरत्न जैन भंडारोंमें या बड़े राज्योंकी लायब्रेरियोंमें उपलब्ध होते हैं। मगर खेद इतना ही है कि जैन समाजमें पुस्तक प्रकाशनको अनेक संस्थाएं रहने पर भी इस विज्ञानविषयके ग्रन्थोंका प्रकाशन करनेमें पराङ्मुख रहती है। इसका कारण इस विषयके ज्ञानका जनतामें अभाव मालूम होता है। परंतु जैनाचार्यों के रचे हुए विज्ञानके अनेक ग्रन्थ अजैन संस्थाओंने प्रकाशित किये हैं। अभी हालहीमें 'त्रैलोक्यप्रकाश' नामक ताजकज्योतिष विषयका वड़ा चमत्कारी ग्रन्थ जो सर्वज्ञप्रतिभा श्री. देवेन्द्रसूरिजीके शिष्य श्री हेमप्रभसूरिजीने सं. १३०५ में रचा है, उसका हिन्दी अनुवाद ज्योतिर्विधाविशारद पं. रामस्वरूप शर्माने किया है, यह कुशल आस्ट्रोलाजिकल रिसर्च इन्स्टिट्युट सीरीझ नं. १में प्रकाशित हुआ है। इसकी इंग्लीश प्रस्तावना डो. बनारसीदास जैन एम. ए., पीएच. डीने लिखकर अनुवाद और अनुवादककी बड़ी प्रशंसा भी की है। इस ग्रन्थको आद्यन्त पढ गया हूं, जिससे मालूम हुआ कि सम्पादक महाशयने अनुवाद करनेकी जैसी चाहिए वैसी उदारता नहीं बतलाई; यदि उदार चित्तसे समजपूर्वक अनुवाद होता तो नीचे लिखे हुए अवतरणोंकी इस प्रकार भूल रहने न पाती । देखीये: प्रथम मंगलाचरणके श्लोकका अर्थ गलत रहने पर क्षतव्य है, क्योंकि इससे मुख्य विषयकी गलती नहीं समझी जाती । श्लो. ७ वें में 'तुला तु मुख्ययंत्राणि ' छपा है, इस पाठकी जगह 'शूलावमुख्ययंत्राणि' ऐसा पाठ भी कई एक प्राचीन प्रतियोंमें लिखा मिलता है। इसके लिय डॉ. बनारसीदासजी जैन एम. एने अपनी अंग्रेजी भूमिकामें लिखा है कि-'सुर्लाव' शब्द उस्तुरलावका रूपान्तर है, यह ठीक है। क्योंकि ग्रन्थकारने यवनग्रन्थोकां आश्रय लिया है, जिससे 'उस्तुर्लाव ' फारसी शब्द है, उसके स्थान पर संस्कृतमें ग्रन्थकारने 'स्तुर्लाव' शब्द लिखा होगा। उसका अपभ्रंश होते हुए मतिदोषसे किसीने 'तुला च' लिख दिया और किसीने 'शूलाव' लिख दिया मगर इसका अर्थ भाषान्तरकारने कुछ खोला नहीं है, कि जिसका प्रचलित अर्थ 'यन्त्रराज' है। श्लो. १० वेमें 'चतुर्जेनतनुद्भवम् ' का अर्थ- जैनके चार आश्रमोंसे उत्पन्न ' लिखा यह गलत है। जैन ग्रन्थों में आश्रमोंकी व्याख्या नहीं है। श्लो. १४ में 'ससपत्नी:निःस्वतां च शनौ' इस अनुष्टुप् श्लोकके चौथे चरणमें दश अक्षर कैसे हुए ? इस अशुद्ध पाठकी जगह प्राचीन प्रतियोंमें 'सपत्नों निःसुतां शनौ' ऐसा शुद्ध पाठ होने पर भी सुधारनेको कोशीश नहीं की गई। श्लो.१७ -१८ में ग्रहोंको ‘मास संज्ञा है, उसके बदले एक विषयक फलादेश लिखा है। श्लो. २१ में For Private And Personal Use Only
SR No.521635
Book TitleJain_Satyaprakash 1947 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1947
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy