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कतिपय और सिलोके
(लेखक:-श्रीयुत अगरचन्दजी नाहटा) "जैन सत्य प्रकाश के क्रमांक १३२ में प्रो. होरालाल कापडियाका "शलोकानो संचय " शीर्षक लेख प्रकाशित हुआ है। यह अंक मेरे अवलोकनमें अभी ही आया है अतः यहां उसके सम्बन्धमें नवीन जानकारी प्रकाशमें लाई जा रही है।
प्रो. हीरालालजीके लेखमें कतिपय अटियं एवं कामयें रह गई हैं अतः मुझे ज्ञात नवीन (उनके लेखसे अतिरिक्त) सिलोकोका परिचय देनेके पूर्व आपकी त्रुटियों का परिमार्जन कर देना एवं नवीन ज्ञातव्य प्रकाशित करना आवश्यक समझता हूँ..
१. शलोको या सिलोकोका गूल रूप श्लोक ही है । विवाह के समयमें वर-कन्याके संलापकी प्रथा पुरानी रही होगी, पर मारवाड़के आमोंमें तो वर और कन्या पक्षवाले ही बोलनेकी होड़ाहोड़ करते हैं, पर और वधू नहीं । पर पीछे तो ऐसी रचनायें एक ही प्रकारके छंदमें रची जाने लगी अर्थात् सभी सिलोकोंमें छंद एक ही प्रकारका प्रयुक्त हुआ नजर आता है अतः इस नामकरणको रचनाविशेषका एक प्रकार भी कहा जा सकता है।
२. शलाके सर्व प्रथम १८ वी सदीसे रचे जाने लगे, लिखना आपके अन्यत्र कथित कथनका परस्पर विरोधी है। क्योंकि नं. १४ वाले लोकाशाह शलोकाका परिचय देते हुए आप स्वयं ही उसे १७वीं शताब्दीका बतला रहे है । अत: १७वीं शताब्दी ही मानना उपयुक्त है। इस लेख में आगे चलकर मैं हीरविजयसूरिजीके एक अन्य सलोकेकी चर्चा करंगा, वह भी १७ वीं सदीकी रचना होनेसे १७ वीं शताब्दीके कालका ही समर्थन होता है।
३. आप विमल मंत्रीके शलोकेको सबसे बड़ी रचना बतलाते हैं, पर यह भी आपके अन्यत्र कथित कथनसे विरोधी है, क्योंकि शालिभद सलोकेका १४७ गाथाओंका होना नं. २० का परिचय देते हुए आपने स्वयं लिखा है, अतः सबसे बड़ी रचना उसे ही मानना
१. मारवाडमें यही संज्ञा प्रचलित है।
२. हमारे संग्रहमें इसके मूलकी परिदर्शक एक प्राचीन रचना मिली है जो दिल्ली के पीरोजशाह व महमदशाह एवं वडगन्छके आचार्य पूर्णभद्रसूरिके समयकी रचना है। इससे ज्ञात होता है कि,सलोका बोलनेकी प्रथा मूल रूपमें अपने सालेका कौतुहल पूर्ण करनेको (उसे सम्बोधन करते हुए अपना परिचय देनेवाले श्लोक सर्व लोगोंके समक्ष वर कहता है उसीस) हुई है। हमें उपलब्ध रचनामें वर अपनेको सुराव (णा !) गोत्रीय तीहाकी पत्नी धनश्रीका पुत्र एवं सुसाणी देवीको अपनी कुलदेवी बतलाता है। पाठकोंकी जानकारी के लिये यह कृति आगे कभी प्रकाशित की जायगी।
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