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શ્રી જૈન સંત્ય પ્રકાશ
[ વર્ષ ૧૨ बतला रहे हैं कि मानवसंस्कृतिके उत्थानमें ऋषि मुनियों द्वारा चिन्तित एवं गवेषित तत्वों ने भारी सहायता प्रदान की है। क्योंकि सांसारिक भौतिक लिप्साओंसे सर्वथा विमुख रहनेवाले तत्वचिन्तकोंका प्रभाव संसारमें अनुरक्त रहनेवाले जीवों पर अधिक रूपसे पड़ता है । उन्हीं लोगोंको मानवसंस्कृतिमें प्रविष्ट हुई विकृतिको हटानेके लिए कडीसे कडी आलोचनाएं करनेका पूर्ण अधिकार है, चाहे श्रीमन्त हो या अकिञ्चन । ऊंचेसे ऊंची विचारधारा भी सार्वकालिक पथप्रदर्शनके सौभाग्यसे मंडित नहीं हो सकती। हो सकता है कि इस नियमके अनुसार २००० वर्ष पूर्वके क्रियाकलाप आजको दृष्टिमें क्षुद्र मालम होते हो, परन्तु उन क्रियाकलापोंको विकृतरूप देकर उस व्यक्तिको अनर्गल सम्बोधनसे सम्बोधित करना मानवता नहीं है।
महाराजा विक्रमादित्यके अस्तित्त्वको सूचित करनेवाले एक निबन्ध "विक्रमसंवत" (प्र०-नागरी प्रचारणी पत्रिका सं. २००२, पृ. ८५, लेखक-अनन्तसदाशिव अलतेकर एम. ऐ., एलएल. बी., डी.लिट) में आचार्य कालकाचार्यको देशद्रोही ठहरानेका लेखकने कुत्सित प्रयास किया है, जो इस प्रकार है:___ " देशद्रोही कालकाचार्यकी सहायता जिस शक राजाने की उसके पराक्रमका वर्णन तो अनिवार्य है। परन्तु आगे चलकर विक्रमादित्यने शक राजाका पराभव किस प्रकार किया इसका वर्णन अप्रासंगिक जान पडता है।"
पाठक देखेंगे कि कालकाचार्य जैसे मानवसंस्कृतिके उन्नायक आचार्यको भी "देशद्रोही" कहने में भारतके उच्च शिक्षाप्राप्त विद्वानको तनिक भी हिचकिचाहट नहीं होती, यह कम खेदका विषय नहीं । आजके राष्ट्रीय युगमें संसारके किसी भी मानवसमाजका सदस्य, चाहे वह अत्यन्त निम्न श्रेणीका ही क्यों न हो, अपने पूर्वजके प्रति ऐसे अपमानजनक शब्दको बर्दास्त नहीं कर सकता । और जैन समाज तो कालकाचार्यको एक महान् आचार्यके रूपमें स्थान दिये हुए है । हम नहीं समझ पाते हैं कि त्यागी आचार्य पर इस प्रकारका आक्षेप कर लेखकने कौनसा लाभ प्राप्त किया ? भारतीय संस्कृतिके उज्ज्वलतम प्रतीककी कीर्तिकौमुदीमें इस प्रकारके आक्षेप कोई मूल्य नहीं रखते । आचार्यश्रीके जीवनमें कोई भी ऐसी बात नहीं पाई जाती जिससे उनकी देशद्रोहिता प्रमाणित हो सके। एक घटना उनके जीवनमें अवश्य घटी है जिनके मूलगत रहस्यको समझे बिना ही अलतेकर महोदयने अपनी भ्रमपूर्ण धारणा शायद बना ली हो तो हम ना नहीं कह सकते। वह घटना इस प्रकार है:
आर्य कालक राजकुलमें उत्पन्न हुए थे। उन्हें सरस्वती नामक भगिनी थी । उस समय क्षात्रवृत्तिवालोंमें ही आध्यात्मिक विद्याका अत्यधिक प्रचार एवं चिन्तन था। क्रमशः समय
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