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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सोमसेनकृत " त्रिवर्णाचार - [ एक दिगम्बरीय ग्रन्थकी रचनाका परिचय ]लेखक : पूज्य मुनिमहाराज श्रीदर्शनविजयजी ( त्रिपुटी) मूलसंघके सेन संघके पुष्करगच्छीय आचार्य (भट्टारक) गुणभद्रसूरिके पट्टधर आ० भट्टारक सोमसेनसूरिने तो ग्रंथरचनामें अपने दिगम्बर आचार्यैसे दो कदम आगे बढाये है । इससे पहले दिगम्बरीय ग्रंथोंकी रचनाके बारेमें जो कुछ लिखा गया है इससे साफ है कि- श्रीमद् वट्टेरकाचार्य वगैरहने तो जैन- ग्रंथों से ही नये ग्रंथ बनाये हैं, मगर भ. सोमसेनजीने तो दूसरे विद्वानोंके ढेरके ढेर वाक्योंको ज्यों का त्यों उठाकर या उनमें कुछ साधारण सा अश्रवा निरर्थक सा परिवर्तन करके एक अच्छा खासा संग्रह - ग्रंथ बना लिया है, जिसमें दुर्भाग्य से अजैनोंके बहुत से साहित्य के आधार पर जैन साहित्य प्रकट किया गया है । "" " भ० सोमसेनजीने वि० सं० १६६५ में कार्तिक शुक्ला १५ रविवार के दिन सिद्धियोग और अश्विनी नक्षत्र में “ त्रिवर्णाचार" ग्रंथ बनाया है; जिसका दूसरा नाम "धर्मरसिक " ग्रंथ है (त्रि० अ० १३, श्लोक २१७ ), जो ग्रंथ सोलापुरवाले दोशी रावजी सखाराम इ. स. १९९० में मराठी - भाषांतर के साथ मुद्रित किया है । १ - " त्रिवर्णाचार " यानी " धर्मरसिक " ग्रंथमें १३ अध्याय हैं, २०४६ पध हैं, करीब ६०० श्लोकप्रमाण गद्य है, ३२ अक्षरके लोककी गणना के अनुसार २७०० श्लोक प्रमाण ग्रंथका कलेवर है । २ - इस ग्रंथ में आ० जिनसेन, आ० समंतभद्र, भट्टाकलंक, विबुधब्रह्मसूरि, पं० आशाघर और गुणभद्र मुनिके कथनको संग्रह करनेकी भ० सोनसेनजीने प्रतिज्ञा की है ( त्रि० अ० १, श्लोक ९ ) । ३ - भट्टारकजीने सारा मंत्र विभाग यानी गद्यविभाग और १६९ पद्म ज्योंका त्यों, और कुछ मंत्रविभाग और १७७ पद्य, कुछ परिवर्तन के साथ ब्रह्मसूरिके त्रिवर्णाचारसे उठाकर अपने ग्रन्थ में रख दिए हैं (ग्रं० प०, भा० ३, पृ. १० ) । १ १ एक गोविंदभट्ट नामके विद्वानने “देवागम" स्तोत्र सूनकर जैनधर्म स्वीकारा और उनके वंशज भी जैनी बने रहे। उसके वंश में विजयेंद्रके पुत्र ब्रह्मने दिगम्बर दीक्षा ली, जो ब्रह्मसूरि के नामसे जाहिर हुए। उन्होंने 'जिनसंहितोद्धार' व 'त्रिवर्णाचार' बनाए हैं। उनके भानजे प्रहस्थ विद्वान् नेमिचन्द्रजीने 'नेमिचन्द्रसंहिता' बनवाई है। उस जमाने में कई संहिताग्रन्थ बने हैं । For Private And Personal Use Only " ब्रह्मसूरिके पूर्वज जैनधर्म में दीक्षित होनेके समय हिन्दु धर्मके कितने ही संस्कारों को अपने साथ लाए थे, जिनको उन्होंने स्थीर ही रक्खा बल्कि उन्हें जैनका लिबास पहिनाने और त्रिवर्णाचार जैसे ग्रन्थों द्वारा उनका जैन समाजमें प्रचार करनेका भी आयोजन किया है । " ( ग्रन्थपरीक्षा भा. ३ पृष्ठ - १०, ८, ९
SR No.521627
Book TitleJain_Satyaprakash 1946 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1946
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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