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1] वियाही सवा' संज्ञ४ २यनाये . [ २३ सुरक्षित है। मूल लेख इस प्रकार है
रायपुर C. P.
[१] ॥५०॥ ॐ है। नमः ॥ सं । १९१५ शाके १७८० । मासोत्तम [२] मासे पोष मासे शुक्लपक्षे दशा तिथौ श्रमद् बृहत्व [३] रतर गच्छे भ। जं । यु। भ। श्रीजिन सौभाग्यसूारेजी विज[४]य राज्ये श्री श्री सागरचंद्रसरि शाखायां वा० सत्य सौ [२] माग्य गणोना-मुपदेशात् रायपुर वास्तव्यः श्री संघे [६]न यन्धर्मशाला कारिता, धर्म ध्यान करों सदा मंत्र [७] पढौ नवकार जगमें याही सार है, वंछित फल दातार ।” . लेखकथित सत्यसौभाग्य के कुछ लिखित ग्रन्थ नागपुर ज्ञानभंडारमें विद्यमान हैं,
और उनका रायपुरमें ही बनाया हुआ सकलतीर्थ स्तव नामक संस्कृत स्तोत्र मेरे संग्रहमें है। प्रशस्तिसे जाना जाता है कि इन्होंने यहां न्याय काव्य आदि शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त किया था।
अमरावती
[१] ॥ अथास्मिन् शुभ संवच्छरे श्रीविक्रमादित्य राज्यात् सं-[२] १९२१ शाके १७८६ प्रवर्त्तमाने मासोत्तममासे माघमासे शुक्ल[३]पक्षे सप्तम्यां तिथौ गुरुवासरे श्री अमरावतो नगरे श्री बृहत् [४] खरतर भट्टारक गच्छे श्रीजिनहंसारिभिः विजयराज्ये पं[५] बालचंद्र उपदेशात् इदं उपाश्रयं श्री संघेन कारापितम् ॥ - उपर्युक्त दोनों श्रीपूज्योंके दफ्तरोंका ऐतिहासिक अनुसंधान किया जाय तो प्रान्तके विषयमें कई नवीन ज्ञातव्य प्रकट होनेकी पूर्ण संभावना है। मैंने बीकानेरके नरन श्रीपूज्यजीको इस विषय में लिखा था, पर प्रत्युत्तर न मिल सका, यदि संशोधन किया जाय तो भोर भी अनेक उपाश्रयलेख मिल सकते हैं।
जैन कवियोंको 'संवाद' संज्ञक रचनायें
लेखक-श्रीयुत अगरचंदजी नाहटा, बीकानेर शिक्षाका महत्व एवं उसकी उपयोगिता सर्व विदित है और उसका उद्देश्य व फल है बौद्धिक विकास । बौद्धिक विकासके अनेक साधनोंमें वादविवाद भी एक है, इसी लिये प्राचीन कालमें वादका महत्त्व पाते हैं । दो विरोधी वस्तुओंका स्वगुणोत्कर्ष प्रतिपादन एवं विरोधीके दोषोंका उद्घाटन रूप संवादात्मक साहित्य कविकी प्रतिभाका परिचय देनेके साथ पाठकोंको विनोद उत्पन्न करनेके साथ बुद्धिका विकास भी करता है। जैन विद्वानोंने विविध विषयक अन्यान्य साहित्य निर्माण करनेके साथ 'संवाद' संज्ञक कतिपय रचनायें भी बनाई है, पर खेद है कि उनका प्रचार बहुत कम है। जैन विद्वानके रचित संस्कृत साहित्यमें संवाद सुन्दर' नामक ग्रंथ प्रायः १५ वी शताब्दिकी रचना है, उसमें १ शारद-पायोः संवाद, २ गांगेय-गुंजयोः संवाद, ३ दारिद्य-पद्मयोः संवाद, ४ लोक-लक्ष्म्योः संवाद, ५
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