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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष ११
इन के अभिप्राय में 'नुद' धातु प्रेरणा अर्थ में हैं, उससे नोंदना शब्दकी सिद्धि होती है अतः प्रेरणा लक्षणात्मक ही धर्म है यह मीमांसकों का मन्तव्य हैं । इस प्रेरणालक्षणात्मक धर्म के उपर जैमिनि का सुन्दर लम्बा चौडा ' पूर्वमीमांसासूत्र' है, मीमांसाशास्त्र के अधिक जिज्ञासुको 'शाबरभाष्यसहित' जैमिनीयसूत्र (पूर्वमीमांसा) देखना चाहिये। हां तो मीमांसाशास्त्रकारों की राय में भी प्रेरणालक्षणात्मक ही धर्म हैं, किन्तु मीमांसा के 'नोदनालक्षणो धर्म:' इस प्रथम सूत्र के आदिम तीन अक्षरों के ही गंभीर अर्थपर विचार करें तो कहना पडेगा कि मोमांसा के धर्मलक्षण भी सम्यग्ज्ञान- दर्शन - चारित्र रूप धर्मलक्षण के अन्तर्गत है । क्योंकि बिना सम्यग्ज्ञान सम्यगदर्शन और सम्यक् चारित्र के प्रेरणा सार्थक नहीं हो सकती अथवा यों कहिये कि विना सम्यग्ज्ञान दर्शनचारित्र के सच्ची प्रेरणा का अभाव ही रहता है अतः मीमांसकों के प्रतिपादित धर्म का लक्षण भी सम्यगज्ञानदर्शन चारित्ररूप धर्म के लक्षण के अन्तर्गत ही है ।
तर्कवादी न्यायशास्त्रकारों ने विशेष रूप से हितकारक क्रियाकलाप को धर्म कहा है, किन्तु कोई भी क्रियाकलाप विशेषरूप से हितकारक तभी हो सकता है जब उसको अच्छी तरह जान लिया जाय, देख लिया और अच्छी तरह किया जाय । अतः तर्कवादियोंके द्वारा निरूपित ' विहितक्रियाजन्यो धर्मः ' अथवा ' ज्ञान विहित क्रियाजन्यो धर्मः ' यह धर्म का लक्षण भी सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्र रूप धर्मलक्षण के अन्तर्गत ही हो जाता है । इसी तरह कोई कोई आत्मानुकूल अर्थ (प्रयोजन) को ही धर्म मानते हैं । इनके मन्तव्य में आत्मा के अनुकूल जितने प्रयोजन हैं वे सभी धर्म हैं । धर्ममर्म और कवियोंने भी इस बातको पुष्टि की हैं जैसेश्रुतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् " ॥
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अर्थात् धर्मका सर्वस्व (सबकुछ, लक्षण या स्वरूप) को सुनो और सुनकर हृदय में रक्खो, धर्म का सर्वस्व क्या है उसको पद्य के उत्तरार्ध से उत्तर करते हैं कि अपनी प्रतिकूल (विपरीत) जो बात हो वह दूसरों के लिये नहीं आचरण करनी चाहिये यानी अपनी (आत्मा की ) अनुकूल बात को ही दूसरों के लिये भी आचरण करनी चाहिये, यही धर्म है अर्थात् आत्मानुकूलसिद्धि अर्थ (प्रयोजन) ही धर्म है, यही धर्म का सर्वस्व है, धर्म का स्वरूप है। यह उपर्युक्त श्लोकका सारांश है । अब आत्मानुकूल प्रयोजन ही धर्म जिन धर्मशास्त्रकारों के मत में है उनका भी धर्मलक्षण का सिद्धान्त सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप धर्मलक्षणके अन्तर्गत हो जाता है, क्योंकिविना सम्यग् ज्ञान सम्यग् दर्शन और सम्यक् चारित्रके कोई भी प्रयोजन आत्मा के अनुकूल नहीं हो सकता है | अतः इससे भी यही सिद्ध हुआ सम्यग्ज्ञानदर्शनचारित्ररूप ही धर्म है। इसी तरह अन्य दर्शनकारों के यथाकथित धर्मलक्षण सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र केही अन्तर्गत हो जाते है, तुलना और समन्वय करनेके लिये बुद्धि में क्षमता प्रतिभा
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