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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ ___ . [ ११ जब तक कि उसके अनुकूल उन काल-स्वभाव आदि पाँच कारणोंकी परंपरा बनी रहेगी। अनादिसे जारी रहनेवाला कर्मसंबध कितनेक जीवोंके साथ अनंत कल तक रहेगा। यह पहला भंग १ अनादि अनंत कहा जाता है ।
संसारी जीव संसारी जीव अपने शरीरके प्रमाणमें ही फैला हुआ रहता है, रबरके फोतेकी मिसाल उसमें घटित नहीं होती। क्योंकि वह तोड़ा जा सकता है। कर्म परमाणुओंके समवायसे फीता बनता है। अतः प्रति परमाणु रूपमें वह टूट २ कर बिखर सकता है। जीव टूटता नहीं । न वह टूट २ कर बिखरता ही है । सूक्ष्मातिसक्ष्म और स्थूलातिस्थूल रूपमें भी बह एक और अखंड ही बना रहता है। इस हालतमें जीव स्वभावसे ही आदि और अंत रहित है।
अनादि अनंत अनादि अनंत कालकी सत्तावाले जोवके साथ कींका संयोग प्रवाह रूपसे अनादि कालसे चला आ रहा है । जैसे एक मुर्गी कई अंडोकी जननी होती है, वैसे ही पूर्व कर्मसंयोग, कारणोंके रहते हुए, नये फर्मसंयोगोंका जनक होता जाता है। मुर्गीसे अंडा, भंडेसे मुर्गी, यह प्रवाह अनादि कालसे चला आ रहा है वैसे ही पूर्वा पर कर्म संयोग-वियोग का तांता अनादि कालसे प्रवाह रूपसे चला आ रहा है । सभी अभव्य जीवोंके साथ, एवं कितने ही भव्य जीवोंके साथ, प्रवाह रूपसे आनेवाला अनादि कर्मसबन्ध अनंत कालतक होता रहता है। ऐसे सम्बन्धको शास्त्रोंमें “ अणाइया अपज्जवसिया " कहा जाता है।
संयोगके पूर्व संयोगके पूर्व उसके नये कर्मसंयोगका सर्वथा वियोग होता ही है। उसे तार्किक परिभाषामें प्रागभाव कह सकते हैं। प्राक् अभाव कारणोके द्वारा कर्मसंयोग हो जाने पर मिट जाता है। मिट्टीमें घरका प्रागभाव होता है । कुम्हार आदि कारणों के मिलने पर मिट्टी से घरका प्रादुर्भाव होते ही अभाव रूपमें परिणत हो जाता है। पुराने कर्मके संयोगका वियोग होता है, और वही वियोग नये कोंके संयोगका हेतु हो जाता है। इस तरह जन्यजनक भावका तांता अनादि कालसे प्रवाहरूपसे चला आता है। अनंत काल तक वैसे हेतुओंके बने रहनेसे चलता रहेगा। अतः जैन सिद्धान्तसंमत "अणाइया अपजवसिया" भंग बुद्धिवादकी पक्की कसौटी पर कसा हुआ ठीक प्रतीत होता है।।
'अणाइया सपज्जवसिया' 'अणाइया सपजवसिया । जिसकी आदि तो नहीं, किन्तु अंत हो जाता है। जैसे कि भव्य-मुक्त होनेवाले जीवोंका कर्मोंके साथ संयोग अनादिकालसे प्रवाह रूपसे चला
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