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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५.] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१ १ भावार्थ यह है कि-कामसे या भयसे अथवा लोभसे, किंवा अपने जीवनोपायके लिये भी धर्मको नहीं छोड़ना चाहिये, कारण कि धर्म नित्य है और सुखदुःख अनित्य हैं, एवं जीव नित्य है और इसका कारण अनित्य है। इसका निचोड़ यह निकला कि धर्मसे विचलित होना बिलकुल पागलपना या निरी मूर्खता है और अपने धर्मका अच्छी तरह पालन करना मानवताकी सफलताका प्रतीक है। धर्मके ऊपर विचार पूर्वक गंभीर दृष्टि डाली जाय तो सहर्ष स्वीकार करना पड़ेगा कि धर्मके ही उत्थानमें देश, समाज और राष्ट्रका अभ्युत्थान है और धर्मके पतनमें देश, समाज एवं राष्ट्रका पतन निहित है । और आत्माके उत्थान-पतनमें धर्मका निकटतम संबन्ध तो प्रत्यक्ष भौर सर्वविदित ही है। इसलिये धर्मके उद्देश्यको लेकर प्रत्येक व्यक्तिको अपनी श्रद्धा और मान्यताके अनुकूल धर्मको माननेका पूर्ण अधिकार है। मगर इसका तात्पर्य यह नहीं कि कोई महादाम्भिक धर्मकी आडमें छिपकर आव्यात्मिकताका पतन करता हो, मानवताका नाश करता हो, नैतिकताकी जड़का समूलोच्छेदन करता हो और स्वार्थान्धताके बीजको अंकुरित करता हो तो उसे कोई न रोके । अर्थात् ऐसे स्वार्थान्धपूर्ण संगठन (प्रचार )का सर्वथा विरोध करना और तथाकथित उन विरोधीय प्रचारोंको यथासंभव शीघ्र धूलमें मिला देना मानवताके प्रत्येक पूजारी और प्रत्येक नोतिनिपुण प्रजावत्सल राजाका परमावश्यक कर्तव्य है। विश्वके कल्याणके चाहनेवाले प्रत्येक प्राचीन और नवीन महापुरुष विश्व-शान्तिके उपायोंका अन्वेषण कर चुके हैं, करते हैं और करेंगे भी। उन प्रातःस्मरणीय दयाहृदय महापुरुषोंका सैद्धान्तिक उपदेश है कि-दुःखमें एक दूसरेकी सहायता करना, परोपकार करना, परस्पर मैत्रीभाव रखना आदि विश्व-शान्तिके प्रधानतम साधन हैं, और यही मानवताका अप्रतिम प्रतीक है। इन्हीं बातोंको प्राचीन धर्माचाोंने भावपूर्ण अनवद्य पद्योंमें कैसा सुन्दर बतलाया है, वह देखिये और निष्पक्ष बुद्धिसे विचार किजीए, जैसे: श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम् । आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ॥ अष्टादशपुराणेषु व्यासर्वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापोय परपीडनम् ॥ यह एक सर्वमान्य निर्धान्त सिद्धान्त है, और यह है कारुण्यरसोन्मेषी एक भावुक कविका भव्यभावनाभावित जनताचिक्ताकर्षक सरल हृदयका गंभीरार्थक सुन्दर उद्गार । वास्तवमें किसी जीवको दुःख नहीं पहुंचाना, दुःखित जीवोंकी रक्षा करना, असहायकी सहायता करना, भूखेको भोजन देना, प्यासेको पानी देना, मरते हुए जीवोंको बचाना, रोगीको दवा देकर नीरोग करना, और उपकारीके प्रति कृतज्ञता प्रकाश करना........आदि मानवमात्र For Private And Personal Use Only
SR No.521616
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
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