SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir निर्धान्त डिण्डिम लेखक-पूज्य मुनिमहाराज श्रीवल्लभविजयजी, बीकानेर श्वेताम्बरभृतां साधूनां त्रयोदशपन्थिनाम् । नामाहद्धर्मधर्तृणां दयादानसुदुहम् ॥ अधिकेष्वपि सूत्रेषु द्वात्रिंशत्सूत्रमानिनाम् । द्वादशाङ्ग-दुरुहार्थ-तापर्य-भ्रान्त-चेतसाम् ॥ कृते निःश्रेयस-पथ-प्रदर्शी युक्तिसंगतः । निर्धान्त-डिण्डिमो नाम वल्लभेन प्रणीयते ॥ भारतवर्ष एक ऐसा धर्मप्रिय देश है कि जहां भोलीभाली धर्मभीरु जनता प्रायः एक वार तो किसी भी धर्मोपदेशकके भाषित मन्तव्योंको धर्मके नामपर अंगीकार कर ही लेती है, चाहे वह धर्मोपदेशक निरक्षरभट्टाचार्य ही क्यों न हो, वा नामधारी संन्यासी क्यों न हो। हां, यह दूसरी बात है कि उस धर्मको वृद्धि या हास यथासंभव शीघ्र या दीर्घ कालमें होता है। यही कारण है कि, यहां जो कोई भी आया, धर्मकी आडमें बाबा बनकर अपना अडंगा जमा लिया । इसी लिये तो यहां सहस्रों सम्प्रदाय चल रहे हैं, संगठनका अभाव है और स्वतंत्रताका दिवाला है । अथवा यो कहिये कि पञ्चम कालका प्रभाव ही ऐसा है कि-ज्यों ज्यों काल बीतता है त्यों त्यों एकके बाद दूसरा, दूसरेके बाद तीसरा....इस तरह धर्मके नाम पर अनेक मत-मतान्तरोंकी रूप-रेखासे अगणित सम्प्रदाय बढ़ते चले जा रहे हैं। फिर भी इस एक ही ऐलानमें सारी है।गी दुनिया थर्रा जाती है कि-"सत्यमेव जयति, नानृतम्।" __अर्थात् सत्यकी विजय अवश्य होती है, अतः झूठकी हार भी सुनिश्चित है । ऐसी विजय और पराजय समयकी प्रतीक्षा करती है, यह एक और बात है। उन निरर्थक बढे हुये सम्प्रदायोंसे लाभकी जगह हानि होती है और सामाजिक समस्याके सुलझनेमें उलझने पैदा होती हैं, राष्ट्रीय समस्यामें अनीतिका आरोपण होता है और देशकी स्वतंत्रतामें-स्वातंत्र्यकार्यक्रममें सुदुःसाध्यता और असंभवता प्रतीत होती है। कारण कि-धर्मोद्देश्यका साधारण अर्थ है आध्यात्मिक भावोंका विकास करका । लेकिन विशेषार्थ दृष्टिसे तो आधिदैविक और आधिभौतिक गुणोंकी सिद्धिमें और मानवजीवनके साफल्यमें यदि हम धर्मको सहायक कहें तो कुछ भी अत्युक्ति नहीं होगी। धर्मके विषयमें धर्मगुढार्थतत्त्वालोकी प्राचीन पण्डितप्रकाण्डोंके अनेक अमूल्य पद्यरत्न आज भी भारतीय सभ्यसाहित्य-समाजमें चमक रहे हैं, उन्हीमेंसे एक प्रौढ़ कविके हृदयका उद्गार कैसा सरस, सुन्दर और भावुकतापूर्ण है, देखिये न जातु कामान भयान्न लोभान धर्म जहेज्जीवितस्यापि हेतोः । धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.521616
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy