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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जेसलमेरुपहाडदुर्गे श्रोखरतरगच्छे श्रीजिनधर्मसूरिपट्टालंकार श्रीजिनचन्द्रसूरिवराणामादेशेन वा० देवभद्रगणिवरेण । श्रीवसुधारामंत्रशास्त्रमलेखि श्री ॥ छ ॥ श्री॥" इसके पीछे की सं. १६४७-१६९४की लिखित २ प्रतियें जैसलमेरमें देखी थी व सं.१६७१ की लीबडी भंडारमें है। १८-१९वीं शताब्दिकी तो अनेक प्रतियें उपलब्ध हैं। ३. जैन प्रतियोंका पाठ-बौद्ध वसुधाराकी प्रतिका पाठ देखते हुए जैन विद्वानोंने | उसका केवल सार रूप ही अपनाय ज्ञात होता है, मूल रूप ज्यों का त्यां नहीं अपनाया; एवं पीछे से | इसमें परिवर्तन भी होता रहा । अतः जैन भंडारोंकी सब प्रतियों में भी पाठ एक समान नहीं है। कई प्रतियों में "लोको भगवतो भाषितमभ्यनंदन्निति" इन शब्दोंके साथ प्रति समाप्त होती है तो किसीमें इससे आगे विधि आदि कुछ और भी लिखित है। किसी प्रतिमें इसके मध्यका भाग जिसे 'लघु वसुधारा'की संज्ञा दी गई है (जिसका प्रारंभ “ॐ नमो रत्नत्रयाय" शब्दों द्वारा होता है) लिखा मिलता है। ४. वसुधाराको जैनोंके अपनानेका कारण-डॉ. साहेबने इस सम्बन्धमें जो अनुमान लगाया है वह समीचीन नहीं ज्ञात होता । कहाजाता है कि हरिभद्रमूरिजीके शिष्य आते समय इसे बौद्धोंसे लाये थे, पता नहीं यह प्रवाद भी कहां तक ठीक है ! मेरे नम्र मतानुसार जब तक कोई जैन यति नेपाल गया था ऐसा प्रमाणित न हो जाय, तब तक यहीं यह रचना जैनोंको प्राप्त हुई थी, एवं धन मनुष्यका ११ वां प्राण माना जाता है, इसकी चाह किसे नहीं ? अतः श्रावकों के धन-धान्यादिकी अभिवृद्धिके लिये इसका प्रचार किया-ऐसा मानता उचित है। जैनोंमें भी अन्य गच्छों की अपेक्षा खरतरगच्छमें इसका प्रचार अधिक रहा ज्ञात होता है। ५- वसुधाराकी प्रतियें-अभीतक मेरी जानकारीमें वसुधाराकी निम्नोक्त प्रतियें जैन भंडारोंमें प्राप्त हैं२५ प्रतियां-हमारे संग्रहमें जिनमें ७ अपूर्ण हैं, कई लघु वसुधाराकी भी हैं। १५ प्रतियां-श्रीपूज्य श्री जिनचारित्रसूरिजीके संग्रहमें है, जिनमेंसे १ में चित्र हैं। १० प्रतियां-बीकानेरके बडे ज्ञानभंडार एवं अन्य संग्रहालयोंमें। Pre ४ प्रतियां-जयपुर के पंचायती भंडारमें ।-SPrachiPKIO ७ प्रतियां-कोटाके पंचायतो भंडारमें। ni n g ७ प्रतियांकी सूची लींबडी भंडारसूचीमें प्रकाशित है। २ प्रतियां-पाटण भंडारमें होनेका उल्लेख जैन ग्रंथावलीमें है। २ प्रतियां-जैसलमेर भंडारमें सं. १६४७-१६९४ लिखित । ९ प्रतियां-पंजाब भंडारमें। २० के करीब अन्य फुटकर भंडारों एवं यतियों के पास । इस प्रकार करीब १०१ प्रतियां वसुधाराकी उपलब्ध हैं । इससे इसका प्रचार कितना अधिक रहा यह सहज ज्ञात होता है। For Private And Personal use only
SR No.521611
Book TitleJain_Satyaprakash 1945 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1945
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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