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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४५२ ? શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ | વર્ષ ૯ ઈશ્વરની–સર્વજ્ઞની અસિદ્ધિ કરતાં જે વિધાને રજૂ કરે છે એ તો વૈદિક વિદ્વાનોને આશ્ચર્ય પમાડે તેવાં છે. વાંચે તેમનાં વાકયે__"ईश्वरवाद "-"हमारे ईश्वरके अस्तित्वको मानने में केवल चार ही हेतु हो सकते हैं, (१) यातो हमको उसका प्रत्यक्ष अनुभव हुआ हो; (२) या हमारे बाहर और भीतर अनुभवमें आनेवाले जगतके कारणरूपसे उसका अनुमान होता . हो; (३) या शास्त्र-प्रमाणसे उसका ज्ञान हुआ हो (४) या हमको अपने सांसारिक व्यवहारमें किसी ऐसे सर्वसमर्थ और न्यायकारी पुरुष विशेषको आवश्यक्ता प्रतीत होती हो, जिसकी दयाके उपर भरोसा रखकर हम अपने दुःख और संकटपूर्ण जीवनको निर्भय और शान्तिमय बना सकें। प्रथम तीन प्रकारके प्रमाण ईश्वरके अस्तित्वके सिद्ध करनेमें असमर्थ हैं और विचारवान लोग उसको ग्रहण भी नहीं कर सकते, यह कहा जा चुका है ( देखीये 'ईश्वर' अध्याय) अतएव अब हमको केवल चतुर्थ कल्प स्वीकार करना होगा.'' “इस पक्षके अनुसार अपनी आवश्यकताके अनुकुल एक विशेष प्रकारके ईश्वरकी भावना करके उस पर अभ्यास करनेसे चित्तको थोडी देरके लिये धैर्य और शान्ति अवश्य मिल सकती है ( यद्यपि यह उपाय नियम पूर्वक सर्वत्र लाभदायक नहि होता) परंतु इससे स्वतंत्र ईश्वरका बाहर और भीतर व्यापक अस्तित्व नहीं प्रमाणित होता । ऐसा ईश्वर केवल मनकी कल्पनामात्र होगा और उससे हम अपने मनके दिलबहलावाके अतिरिक्त और कुछ आशा ( इस लोकमें उन्नतिकी अथवा परलोकमें उत्तम गति आदिकी) नहीं कर सकते." (प्राच्यदर्शनसमीक्षा. पृ. ४२०-२१) - આની સાથે સાથે લેખક મહાશય પિતાની બુદ્ધિ, યુક્તિ અને તર્કથી જ જગતકર્તા ઈશ્વરને ઇન્કાર કરે છે એટલું જ નહિ કિન્તુ શાસ્ત્રીય પ્રમાણ આપી પિતાનું કથન સિદ્ધ કરે छ; शुमा ५२i 01 वायोनी नोट "वेद आदि शास्त्रोंके द्वारा भी जगत्का कर्ता नित्य ईश्वर निर्विवादसे सिद्ध नहीं होता । यदि हो सकता तो सांख्य और मीमांसक सम्प्रदायके लोग वेदादि सम्पूर्ण शास्त्रोमें पूर्ण विश्वास रखते हुए भी जगत्कर्ता नित्य सर्वज्ञ ईश्वरके अस्तित्वके विषमें क्यों विवाद करते? वेवेदांगके पारंगत कुमारिल भटके " श्लोकवार्तिक "में जगत्कर्ता सर्वज्ञ ईश्वरके अस्तित्वके विषयमें अपूर्व तीव्र प्रतीवाद क्यों किया जाता ?' (पृ. ४२०) આગળ લેખક મહાશય વેદોની ટીકાઓમાં આપસ આપસના મતભેદનું નિદર્શન ४शवतin , " ( सांख्यादयो हि शस्याभावमापादयन्ति यत्नेन-बृहदारण्यक) उन लोगोंने वेदको ही मुख्य प्रमाण माना है, परन्तु उसके तात्पर्यकी व्याख्या करते समय वे किसी और ही सिद्धान्तमें जा पहुंचे हैं। वेदके उपर अनेक प्रकारके भाष्य और टोकाएं पाई जाती हैं, जो सभी एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न सिद्धान्तको स्थापन करनेका प्रयत्न करते हैं, उनमें से एक विशेष भाष्य या शास्त्र ही प्रमाणके योग्य हैं और दूसरे सब अप्रमाण हैं, यदि यह सिद्ध For Private And Personal Use Only
SR No.521601
Book TitleJain_Satyaprakash 1944 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1944
Total Pages28
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size13 MB
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