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[ २९ ]
શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ वर्ष ८ पतिकों परोक्ष समझकरके ही उसका नामस्मरण करतो है । जैसे वह विधवा स्त्री पतिसे साक्षात् होनेकी आशा नहीं रखती है, उसी प्रकार प्रभुके नामस्मरण करनेवाले भी प्रभुसे साक्षात् होने की आशा नहीं रखते, तो यह सब पतिनामस्मरण के साथ प्रभुनामस्मरणका समान धर्म होने से दृष्टान्त असंगत कैसे हो सकता है ? और जैसे तुम्हारे कथानके अनुसार विधवा पतिका नाम लेनेसे उससे साक्षात् होनेकी आशा नहीं रखती कारण सधवा नहीं हो सकती है, उसी तरह तरह प्रभुके नामस्मरणसे भी प्रभुके साक्षात् होनेकी आशा न होने से नामस्मरण निरर्थक सिद्ध हो जायगा, यही उदाहरणको सफलता है, और यहां ठीक भी जम गया। और 'विधवा परोक्ष मानकर स्मरण करतो है, और आप प्रत्यक्ष मानकर पूजा करते हैं । ' इत्यादि लेख भी असंगत हैं, क्योंकि वह परोक्ष मानती है और हम प्रत्यक्ष मानकर मूर्ति पूजने हैं । नामस्मर के साथ तो दृष्टान्त बराबर संगत है, क्योंकि उभयत्र स्मरण होनेसे परोक्ष है, अतएव हमारे विषय में वह दृष्टान्त नहीं हो सकता है ।
' भावस्वरूप से भिन्न नामनिक्षेपको यदि हम वंदनीय मानते तब तो आपका उदाहरण सफल हो सकता यह कथन भी असत्य है । नाम तो भावसे भिन्न ही है, यह बात उपर बताई है। ऐसा होने पर भी उसका भावसे कथंचित् अभेद है, अतएव पूजनीय भी है ही ।
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' हमारा उदाहरण सफल और सार्थक है' यह भी लेख निरर्थक है । वह तो पतिको परोक्ष समझती है और मूर्तिपूजक तो प्रत्यक्ष समझते हैं यह तुमने ही पूर्वमें लिख दिया है अतएव वह थाल्यादि नहीं रखती है, और मूर्तिपूजक पूजासामग्री रखते हैं, इस लिए स्मरणका यह दृष्टान्त सफल और सार्थक है, और मूर्तिपूजाके विषय में यह उदाहरण विरूद्र है, इस लिए मूर्तिपूजाको अप्रामाणिक करने के लिए दूसरा हो उदाहरण पेश करना होगा |
'हुंडी वा नोटके जो रुपये मिलते हैं वो रुपैयों की स्थापना के संबंध से नहीं, किन्तु उनके स्वतः भावसे प्राप्त होते हैं,' यह लिखना गलत है । यदि नोट स्वतः भावसे चलते हों तो विदेशों में भी चलने चाहीए, किन्तु चलते नहीं हैं, अतः स्वतः भावसे चलते हैं कहना गलत ही है। और नोट व हुंडी स्वतः के भावसे प्राप्त हो तो नोटके समान हुंडी भी सर्वत्र रुपैयोंकी प्रापक होनी चाहिए । रुपैया जो आजकल मुद्रासहित चांदीका गोलाकार विशेष देखा जाता है, वो ही भाव है, नोट और हुंडी उसकी स्थापना ही है ।
सूरिजीने-— भाव रूपैयाको अपेक्षया हुंडी और नोट स्थापना ही है, और हुडी और नोटरूपसे वे भाव ही है-ऐसा जो कहा है वह बिल्कुल यथार्थ और प्रमाण संगत है ।
इस तरह अनेक प्रमाणोंसे और सूत्रोंसे भी भावोल्लास कत्वेन स्मरणीय समझते हुए भी इतरोंके तथाविध कार्यका अनादर करना यह एक मनुष्य के एक अवयवकी सेवा शुश्रूषा करना और अपर अवयवकों दण्डादिसे ताडन करना ही है । इस लिये जो प्रमाणसिद्ध पदार्थों को मान्य करते हैं, उन सबके लिये 'गुरुविरहम्मि गुरुठवणा' इत्यादि शास्त्रवाक्य और प्रमाण अवश्य ही उपकारी ही है, न कि अप्रामाणिकोंके लिए ।
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