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कतिपय शब्दों पर विचार
लेखक : श्रीमान् मूलराजजी जैन, M. A., I. L. B.
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[ प्रिन्सीपाल श्री आत्मानन्द जैन कालिज, अंबालासीटी ] १. जैन संस्कृत " आवलि, आवलिका "
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आवलि, आवलिकाका साधारण अर्थ है " पंक्ति, माला । लेकिन जैन संस्कृत में इस शब्दका पंक्तिके अतिरिक्त ' आपत्ति ' अर्थ भी होता है । देखिये
तुरङ्गावलिका पुण्याद विलयं यदि यास्यति । यन्त्रयुक्तप्रतोली द्वागस्योपरि पतिष्यति ॥२६२॥ रत्न साराख्य सन्मित्रादावलीनां चतुष्टयम् । छुटियति कुमारथेत् तदा राजा भविष्यति ॥ २६७ ॥
[ बुद्धिविजयकृत चित्रसेन पद्मावतिचरित्र ] इस अर्थ में जैन लेखकोंने यह शब्द संस्कृत "आपद्" के प्राकृतरूपसे 'ल' प्रत्यय लगाकर बना लिया है । जैसे - आपद् + ल + इका प्राकृत ' आवलिया ' ।
तुलना कीजिये - प्राकृत विज्जुलिया = सं. विद्युत् + ल + इका
चित्रसेन - पद्मावतीका श्लोक ३५८ इस कथनका समर्थन करता है
चित्रसेन नराधीश पुण्यपुण्य प्रभावतः ।
एतत्ते विलयं प्राप यज्ञोक्ता पञ्चतुष्टयम् ॥ ३५८ ॥
जैन संस्कृतका यह शब्द हिन्दीमें अबतक मिलता है । परंतु हिन्दीके कोषकार आवलि शब्द से परिचित न होने के कारण इसकी व्युत्पत्तिमें भूल करते हैं । देखिये -
" औल [S. उप + प्लव ?]s. m. Any great calamity, (as a plague, cholera, etc.
आवळी, औलो sf. Any great calamity, mortal danger ( =अली )" Platts: Hindostani Dictionary,
२. अर्धमागधी " आलिसंदग "
जैन सूत्रोंमें खाने योग्य दाल, फली आदि धान्यों की एक सूची मिलती है, जिसमें ""कुलत्थ" के पश्चात् "आलिसंदग" शब्द आता है । स्थलोंके लिये देखिये " अभिधान राजेन्द्र" जहां भगवती ६, ७, स्थानाङ्ग ५, ३, सूत्र ४५९; दशवैकालिक तथा जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति टीकाका निर्देश है ।
कुल एक प्रकारकी फली होती है । आलिसंग शब्दको व्याख्या करते हुए श्रीमान् अभयदेवसूरिजी इसे भी एक प्रकारका चावला बतलाते हैं (चक्लक प्रकार - ) । दूसरे tarai इसे चावला ही मानते हैं (चवलक एवान्ये ) । स्थानाङ्गवृत्ति में श्रीमान् अभयदेव - सूरिजी भी आलिसिंग को चक्लक ही कहते हैं । अब चवलकका तात्पर्य चावल नहीं,
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