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४२) શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
[ વર્ષ ૮ આ પત્ર લખ્યા પછી પણ જેન ગેઝેટ'ના તંત્રી તરફથી અમને કશો જવાબ નથી મળ્યો, તેમજ તેમણે એ સંબંધી કશી નોંધ “ જેન ગેઝેટ'માં નથી લીધી એ દિલગીર થવા જેવું છે. પંડિત કે. ભુજબલી શાસ્ત્રીને પત્ર.
आरा, १४-५-१९४३ मान्यवर,
सप्रेम जयजिनेन्द्र ।
आपका ता. १२-४-४३ का पत्र देश से लौटने पर मुझे मिला । आपने 'जैनगजट' (अंग्रेजी ) भाग ४०, अं. ३ में ( अंग्रेजी अनुवाद के साथ ) प्रकाशित मेरी 'आत्मनिवेदनम् ' शीर्षक कविता पर आक्षेप किया है । महाशयजी, मैं श्रीरत्नाकरसूरिजी का ही नहीं; श्री अमितगति आदि अन्य कतिपय आचार्य एवं आचार्यतुल्य भूधरदासजी आदि मान्य कवियों का भी चिर ऋणी हूं । क्योंकि अपनी उक्त कविता के लिये मैंने उनकी कृतियों से भी अवश्य सहायता ली है । इसके लिये आप खासकर मेरी कविता का अन्तिम अंश बारीकी से फिर एकबार पढनेका कष्ट उठावें । देसाईजो, विशाल जैन साहित्य में ऐसी-ऐसी एक-दों नहीं; सैंकडों कृतियां मौजूद हैं जो कि एक-दूसरेकी भावानुवाद वा छायानुवादमात्र हैं । क्या आप उन मान्य ग्रन्थयर्ताओं को चोर कहने को तैयार हैं ? यदि ऐसी बात है तो, हेमचन्द्रजी जैसे कलिकालसर्वज्ञ भी इस अपवाद से मुक्त नहीं हो सकते हैं। इसी प्रकार 'प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ', ' कर्मप्रकृति ' आदि श्वेताम्बर ग्रन्थ पूर्ववर्ती दिगम्बराचार्यों की कृतियों की अनुकृतियां सिद्ध नहीं होगी ? रतिलालजी, इसी प्रकार एक-दूसरे से समानता रखनेवालि कृतियां जैन-साहित्य में पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हैं। आपको ज्ञात होना चाहिये कि उन मान्य ग्रन्थकर्ताओंका एक मात्र लक्ष्य धर्म एवं लोकसेवा हो रहा है। मेरी यह कविता भी केवल धर्म एवं लोकसेवा के लक्ष्य से ही लिखी गई है। इसमें मेरा काई स्वार्थ नहीं है। बल्कि मैं आपसे निःसंकोच कह सकता हूं कि रत्नाकरजी की कविता की अपेक्षा मेरी कविता में विशिष्टता है । साथ ही साथ साहित्यशास्त्र की दृष्टि से अधिक उपादेय भी है ( हां, जैनगजट' में अशुद्ध अवश्य छप गई है) आशा है कि मेरे इस पत्र से आपको सन्तोष होगा और आप अपने हृदय से अपने पूर्वभाव को निस्संकोच हटा देंगे। योग्य कार्य लिखिये। 'जैन-सिद्धान्तभास्करे' के परिवर्तन में अपना पत्र भेजकर एकता को बढाइये। इस समय इसीकी मांग है।
आपका के. भुजबली
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