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८] ભારત વર્ષ કે બાહર જેનધર્મ
[२९७] नहीं कर सकते । अतः हम कह सकते हैं कि भारतसे बाहर अभीतक जैनधर्मका कोई अवशेष नहीं मिला ।
जबसे जैन लोग यूरोप और अमरीकामें जाने लगे हैं तबसे वहां भी कुछ व्यक्ति जैनधर्मको पालने वाले हो गये हैं। सं० १९५० में श्रीयुत् वीरचंद राधवजी गांधी " वलज कांग्रेस आफ रिलिजनज" में, जो अमरीकाके चिकागो नगरमें भरी थी, जैनधर्मके प्रतिनिधि बन कर गये । कांग्रेसकी समाप्ति पर गांधीजीने अमरोकामें भ्रमण किया और वहां कई स्थानों पर जैनधर्मके विषयमें व्याख्यान दिये । अमरीकामें "गांधी फिलोसाफिकल सोसायटी" की स्थापना हुई। फिर सं० १९५२ में गांधीजी इंग्लैंड गये । वहां उनके संसर्ग से मि० हर्बर्ट वारनने जैनधर्म अङ्गीकार किया । सं० १९८२ में इन पंक्तियोंका लेखक भी इंग्लैंडमें था और दो तीन बार मि० वारनसे मिला । इनसे मिलकर बहुत आनन्द प्राप्त हुआ कयोंकि वारन महोदय बड़े भद्रप्रकृति हैं । इन्होंने जैनधर्म पर एक पुस्तक भी लिखा है। इन्होंने मांस और मदिराका सर्वथा परित्याग किया हुआ है । सं० १९७० में श्रीयुत जगमंदरलाल जैनीके उद्योगसे लंदनमे “महावीर ब्रदरहुड" और " जैन लिट्रेचर सोसायटी" की स्थापना हुई । कई बरस तक बा०चम्पतराय जैन यूरोपमे
जैनधर्म पर लेकचर देते रहे । इस प्रयत्नका फल यह है कि हर्बट वारन के अतिरिक्त अलैग्जेंडर गार्डन, मिसिज एथल गार्डन, लूई डी सेन्टर आदि कई अंग्रेज ब्यक्ति जैनधर्मको पालने वाले हो गये हैं।
चीन, जापान आदिकी जनताको जहां बौद्ध धर्म का इतना प्रचार है, जैनधर्मका परिचय करानेकी आवश्यकता है ।
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