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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१८] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५८ अब मूर्तिके पराश्रितस्वादि ज्ञानका नियम ही नहीं है तो मूर्ति स्वयं दूसरेके शरणमें रही हुई है, वह औरोंके लिये किस प्रकार शरणभूत हो सकेगी?' यह तर्क कैसे ठहर सकता है ? जो पराश्रित होता है वह अन्यका आश्रय नहीं होता है, ऐसा नियम ही नहीं है, क्योंकि पराश्रित साधु भी दूसरोंको किसी न किसी प्रकार शरण देता ही है। अगर साधु स्वतंत्र है बेसा कहो तो ऐसे स्वच्छंद साधुका आश्रय कान बुद्धिमान पुरुष ले सकता है? और चतुर्विध संघाश्रित धर्म भी परको आश्रय देता ही है, और तीर्थकरका माम बाचकतया पराधीन होने पर भी अन्यको शरण देता ही है इत्यादि अनेक उदाहरण मिलत है जिनके आगे आपकी युक्ति नहीं ठहर सकती। 'अरिहंतकी शरणमें अरिहंतमूर्ति दाखिल कर देते हैं वैसे सिद्धशरणमें लिडकी मूर्ति भी दाखिल होगी, सिद्ध स्वयं अमूर्तिक है तब उनकी मूर्ति कैसी बनती होगी' यह आपकी जिज्ञासा है, इसका समाधान-सिद्धशिलामें सिद्धोंकी नो स्थिति शास्त्रोमें बताई गई है इसी तरह उनकी मूर्ति है इस लिये 'अमूर्तिका आकार नहीं होता है अत एव 'उसकी मूर्ति नहीं हो सकती' पेमा आग्रह नहीं रखना और ज्यादा देखना हो तो आपके गुरु शंकर मुनि कृत सचित्र मुखवत्रिका देख लेना जहां गजसुकुमालजीकी तस्वीर के मस्तक पर सिद्धोंकी तस्वीर लिखी है। इसी प्रकार ज्ञानादिको भी समझ लेना। तुंगीयाकै श्रमणोपासक देवदेवीकी सहाय लेनेवाले नहीं थे, तब उनके लिए गोत्रदेवकी पूजनकी तो बात ही कहां रही? मुलं नास्ति कुतः शाखा' ?। यह बात शास्त्र में उन्हींके लिए दिये हुए विशेषणों (असहेज्ज-देवा-सुर-नागसुघण्णास) से सिद्ध है, अतः 'नाया कयबलिकम्मा 'से सिनेश्वर भगवानकी ही पूजा साबीत है। आपके गुरु इसका 'स्नान किया-कोगले किये' ऐसा अर्थ करते हैं, यह तों असंबद्ध और अनभिज्ञता ही है । पारिभाषिक हो तो तुम्हारे लिये ही मान्य हो सके न कि प्रमाणसे विवेचकोंको | xxx 'अरिहंत चेइयाणं' जहां २ आता है वहां २ अरिहंत भगवानको मूर्ति या मंदिर दोही अर्थ होते हैं, अतः मूर्तिको उडानेके लिये यहां पर अनेक अर्थ करना नाहकमें मगजमारी ही है, यही बात सूरजी महाराजने अपनी समालोचनामें बताई है। [ क्रमशः ] સૂચના આ અંકની જેમ આવતો અંક પણ વખતસર ૧૫મી તારીખે પ્રગટ કરવાની ઈચ્છા છે. આમ છતાં અત્યારના અનિશ્ચિત સંગેના કારણે અંક પ્રગટ કરવામાં વિલંબ થાય તો તે ચલાવી લેવા અને પત્ર લખીને તપાસ નહીં કરવા વાચકોને વિનંતી છે. For Private And Personal Use Only
SR No.521587
Book TitleJain_Satyaprakash 1943 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1943
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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