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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अरिहन्त-त्य' । अर्थ 17१७] आलोचनाको अयथार्थ लिखकर भोलेभाले पामरोंको यथार्थ अर्थसे वंचित क्यों करते हो? और यह शक्तिकी बात है अर्थात् कोई आता जाता नहीं, ऐसा आप कहते है और आपके गुरु तो यहांसे उडकर नंदनवन विश्राम लैवे. यहांसे भी पीछा अपने स्थान आवे इत्यादि लिखते हैं तब कहीय आप सच्चे या आपके गुरु सच्चे ? वे तो 'आये उडकर विश्राम लेंवे ऐसे लिखते हैं, और आप कहते हो कोई आता जाता नहीं। आपके मतसे आलोचना तो आही नही सकती क्यों कि जाता आता कोई है ही नहीं और गुणानुवादमें कोई मालोचना है ही नहिं, आपके लिये वह स्थान रहा ही नहीं। ......... ता. १-१-४२ के लेख में श्रीमान रतनलालजी लिखते है कि कितनी भहो तर्क है ? सूरिजी जानते हैं कि सारी जैन समाज तीर्थंकरोंको अनन्तशक्तिशाली मानती है" इत्यादि परंतु सोचते ही नहीं कि भहि तर्क है किसकी? पूज्य सूरीश्वरजी म. की या आपकी? आपने 'लोकाशाह मत समर्थ नम' लिखा था कि 'मूर्ति स्वयं दूसरोंक शरण में रही हुई है वह औरकि लिये किस प्रकार शरणभूत हो सकेगी ?' इसके जवाबमें पू. गुरुदेवने लिखा कि तुम्हारे साधुओका पेट तुम भर रहे हो, उनके नाक काम आतनायी काट लेते हैं, ऐनै गुरु तुम्हारा क्या कल्याण कर सकते हैं? इसका मतलब यह है कि जैसे वे पराधीनता भोगते हुए भी तुम्हारा कल्याण कर मकते हैं ऐसा तुम मानते हो वैसे ही मूर्ति के विषयमें मानना चाहीए । पराधीन गुरु कल्याण कर सके और मूर्ति नहीं यह तो अर्धजरतीय न्याय है, दुनियामें पक्षपाती क्यों बन रहे हो? ऐसे सीधे सादे विषय को भी न समजते हुए तीर्थकर और साधुओंकी शक्तिका नाप मिकालने लग गये, इससे तो यही सिद्ध होता है कि किसी न किसी प्रकार, हो सके या न हो सके खंडन करना। 'साधुओंकी शरण में संसारतापसे तपा हुथा. मानव चला जाय तो उसे वह निर्भय करता है' शिष्य होने वालेको गुरुका बलाबल देखना जरुरी नहीं, मात्र तीर्थकर भगवानका धर्मधन ही उसके पास होना चाहिए, इस तरह की आपकी युक्ति ही इस बातको सिद्ध करती है कि संसारतापसे तपा हुआ मानव मूर्तिकी शरणमें चला जाय तो उसे वह शुभ भावोत्पादकताको देकर निर्भय कर देती है, भक्तको मूर्तिका पराश्रितत्व या अनाश्रितत्वको देखनेकी जरुर नहीं, मात्र महाबली तीर्थकर भगवानकी भावोत्पादकतारुप धन ही उसके पास होना चाहीए, इस प्रकार युक्तिकी समता होने पर भी एक देशको स्वीकारना अन्य देशको नहीं स्वीकारना यह कहांका न्याय है? और अनेकौ युक्तियां होने पर भी केवल यहाँ मैंने आपकी युक्तिसे ही आपको सुझा दिया है। For Private And Personal Use Only
SR No.521587
Book TitleJain_Satyaprakash 1943 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1943
Total Pages36
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size18 MB
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