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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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फागन सुदि २, सं. १६४९ को जिनचन्द्रसूरि को “ युगप्रधान " और मानसिंह को “ आचार्य " पद दिया गया। मानसिंहका नाम तबसे जिनसिंह प्रसिद्ध हुआ । इस अवसर पर मंत्री कर्मचन्द्रने बडा महोत्सव किया । जयसोम को पाठकपद मिला । इसी प्रकार भानुचन्द्र को उपाध्याय पद दिया गया । इस अवसर पर अबुलफझलने ६०० रुपये और १०८ घोडे दान किये। जब विजयसेन ने ब्राह्मण पंडितों को वाद में जीता तब उनको “ सवाई हीरविजय" की पदवी मिली। नन्दिविजय और सिद्धिचन्द्र के अवधान देख अकबरने उन्हें "खुशफहम" ( कुशाग्रबुद्धि ) की पदवी दी।
ग्रन्थरचना-लाहौर में रह कर मुनियों ने कई ग्रन्थ रचे। जैसे
१. अष्टलक्षी-इसकी रचना समयसुन्दर ने की। इसमें “ राजा नो ददते सौख्यम् ” के आठ लाख अर्थ किये गये हैं। इस पर “रत्नावली" टीका भी है। यह ग्रन्थ सं. १६४६ में प्रारम्भ हो कर सं. १६७६ में समाप्त हुआ। जितना भाग सं. १६४९ तक लिखा गया था उसे अकबरने लाहौर में सुना।
२. सं. १६५७ में उपाध्याय जयसोम ने मन्त्रि कर्मचन्द्रप्रबंध लिखा ।
३. अकबर पर पारसी धर्म का बहुत प्रभाव पड़ा था और इससे वह सूर्य की उपासना किया करता था। भानुचन्द्र ने उसके लिये “ सूर्यसहस्रनाम" स्तोत्र की रचना की जिसे अकबर प्रतिदिन सुनता था।
४. सं. १६६४ में शीलदेव ने “ विनयंघर चरित्र रचा । देखिये"पंजाब जैन भंडार सूची" (अंग्रेजी) लाहौर, सन् १९३९ । पृ. १३७.
५. सं. १६५१ में कवि कृष्णदास ने हिन्दी में “ दुर्जनशल्यबावनी" बनाई।
६. सतरहवीं शताब्दी में होनेवाले जैन कवि जटमल नाहर ने हिन्दी में " लाहौर की गज़ल" लिखी। यह लाहौर में नहीं लिखी गई, मगर लाहौर से संबन्ध रखने के कारण इसका उल्लेख किया गया है।
देखिये-" जैन विद्या", प्रथम अंक, पृ. २५ (हिन्दी) लिपिकत ग्रन्थ-लाहौर में रह कर मुनियों तथा यतियों ने अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपियां उतारी।।
लाहार का जैनधर्म संबन्धी आधुनिक वृत्तान्त फिर कभी लिखा जायगा ।
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