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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [२२] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५०७ राजा द्वारा स्थापित अर्हत्प्रतिमा के वन्दन के लिये राजान्तःपुर में जा सकते थे। 'दोवारिय' लोग वे होते थे जो द्वार पर बैठ कर अन्तःपुर की रक्षा किया करते थे। 'वरिसधर' लोग भी अन्तःपुर की रक्षा करते थे । ये लोग अमुक प्रयोगों से उत्पन्न होने के समय ही नपुंसक कर दिये जाते थे । 'महत्तर' लोग अन्तःपुर के कार्यचिन्तक होते थे। ये अन्तःपुर की स्त्रियों को राजा के पास ले जाते थे, ऋतुस्नान करने पर उन्हें कहानियां कहते थे, कुपित होने पर उन्हें प्रसन्न करते थे, और राजा से कहते थे, तथा कारण विदित होने पर दूसरों को आगे करके राजा से निवेदन करते थे । 'कंचुकी' लोग अन्तःपुर का समाचार राजा से निवेदन करते थे। ये लोग वृद्ध होते थे और राजाज्ञा से अन्तःपुर की स्त्रियों के पास जाते थे । स्वयं राजा दुपहर में अन्तःपुर में प्रवेश करता था और स्त्रियों से जैसा जिसका पद होता था, तदनुसार बातचीत करता था। इस प्रकार अन्तःपुर का विशिष्ट वर्णन इन आगमों में मिलता है। २ आपण-शालायें जैन आगमों में अनेक प्रकार की शालाओं का उल्लेख आता है। 'कुत्रिकापण' नाम की एक ऐसी दुकान होती थी जहा तीनों लोकों की सामग्री उपलब्ध होती थी। यहाँ दीक्षा की सामग्री भी मिलती थी, जिसका मूल्य मनुष्य की शक्ति को देखकर लिया जाता था । उदाहरण के लिये सामान्य लोगों से इसका मूल्य पांच रूपये लिया जाता था, मध्यम पुरुषों से हज़ार रूपये और चक्रवर्ती आदि उत्तम पुरुषों से उसी वस्तु का मूल्य एक लाख रूपये लिया जाता था । उजयिनी नगरी में राजा चण्डप्रद्योत के समय इस तरह की नौ कुत्रिकापण मौजूद थीं। सबसे विचित्र बात यह है कि इस दुकान पर भूत भी विकते थे। एक बार भृगुकच्छ (भरोंच ) का कोई व्यापारी एक लाख रूपये देकर यहाँ से भूत मोल लेकर आया था । भूत प्रत्येक काम को बहुत जलदी से कर डालता था। अन्त में व्यापारी ने तंग आकर एक स्तंभ गड़वा दिया और भूत से उस पर चढ़ते-उतरते रहने को कहा । भूतने हार मान ली और वह भरोंच में 'भूत तडाग' नामक तालाब बना कर वहां से चला आया। इस ‘भूत तडाग' तालाब का उल्लेख खारवेल के शिलालेख में भी आता है। 'व्याधरणशाला' नाम की एक दूसरी शाला का उल्लेख भी बृहत्कल्पसूत्र भाष्य में आता है। यह शाला तोसलि देश में थी । उसमें एक अग्निकुंड था, जिसमें हमेशां आग प्रज्वलित रहती थी। इस शाला में स्वयंवर के लिये दासकी एक लड़की और बहुत से दाल के लड़के प्रवेश करते थे। कन्या जिसको पसंद कर लेती थी, उसके साथ कन्या का विवाह हो जाता था । कुम्हारों के बर्तन वेचने के लिये एक अलग स्थान होता था । इसे 'पणितशाला' कहते थे। कभी वणिक लोग भी कुम्हारों से बर्तन खरीद कर इस शाला में बेचते थे । 'भाण्डशाला' में कुम्हार लोग घट, शराव आदि बर्तन सुरक्षित रूपसे रखते थे । 'कर्मशाला' में कुम्हार घट आदि बर्तन बनाने का काम करते थे । 'पचनशाला' में कुम्हार लोग बर्तन पकाते थे। 'कम्मंतसाला' For Private And Personal Use Only
SR No.521574
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size22 MB
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