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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [१५ सातभु गया था इसी लिये प्रत्येक ग्रन्थके अन्तमें उन्होंने विरह१२ शब्दका प्रयोग किया है, इससे यह भलीभांति जान सकते हैं कि-ग्रन्थनिर्माणका कारण उक्त घटना अवश्य थी। उनको पुस्तकोंमेंसे 'विरह' शब्दअङ्कित कुछ पद्य नीचे दिये जाते हैं मात्सर्यविरहेणोच्चैः श्रेयोविघ्नप्रशान्तये ।-योगदृष्टिसमुच्चय । भवान्ध्यविरहस्तेन जनः स्ताद्योगलोचनः ।-योगबिन्दु । स तत्र दुःखविरहादत्यंतसुखसंगतः ।-धर्मबिन्दु प्रकरण । भवविरहबीजमनधं, लभतां भव्यजनस्तेन ।-शास्त्रवार्तासमुच्चय । भवविरहवरं देहि मे देविसारम् ।-संसारदावास्तुति । याकीनीमहत्तराके प्रति कृतज्ञता जिस प्रकार श्री हरिभद्रसूरिने ग्रन्थके अन्तमें 'विरह' शब्द प्रयोग किया है उसी प्रकार अपने उपकारीका उपकार भी जगह जगह स्मरण किया है । प्रारम्भ में 'याकिनीमहत्तरा' से ही उनका अभिमान हरकर सद्बोधकी प्राप्ति हुई थी और उसीके ही कारण उन्हें सत्य मार्गपर चलनेका अवसर प्राप्त हुआ था, इसके लिये उन्होंने प्रायः प्रत्येक ग्रन्थ के अन्तमें 'याकिनीमहत्तरासुनु' यानिनीमहत्तराके धर्मपुत्र के तौर पर अपनेको बतलाकर 'याकिनीमहत्तरा के प्रति सन्मान प्रगट किया और उनका नाम अमर किया है। जाइणिमयहरियाए रइता एते उ धम्मपुत्तेण । हरिभदायरिएणं भवविरहं इच्छमाणेणं ॥-उपदेशपद । इस गाथामें 'याकिनीमहत्तरा' और 'विरह ' शब्दको पाठक भलीभांति देख सकते हैं। स्वर्गवास आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजोके स्वर्गवासस्थान आदिका कहींसे पता नहीं चल सका, उनके समयके विषयमें भी विद्वानोंका एक मत नहीं । पूर्वपरम्परा और पट्टवाली आदिके अनुसार उनका स्वर्गवास वीरनि सं.१०५५ विक्रम सं. १२ आचार्यश्री हरिभद्रसूरिजी के आवश्यक बृहद्वृत्ति न्यायप्रवेशिकाटीका आदि ग्रन्थ ऐसे भी उपलब्ध हैं, जिनमें 'विरह ' शब्दका प्रयोग नहीं किया गया। इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि कुछ ग्रन्थोंका निर्माण उक्त दुखप्रद घटनासे पहिले भी किया होगा । १४४४ प्रथोंके निर्माता आचार्यने उक्त घटनासे पहिले कोई ग्रन्थ लिखा ही न हो यह बात विश्वसनीय नहीं हो सकती । For Private And Personal Use Only
SR No.521573
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 09 10 11
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages263
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size130 MB
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