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म १२] લક્ષ્મીચ સુરાણ
[४४१] १८९३ फाल्गुन सुदि ४ [इ. स. १८४३ ता. ५ मार्च ] का बीकानेर आया। महाराजा रत्नसिंहजीने उस बागी लुटेरे बख्तावरसिंह को गिरफ्तार करने के लिए रावनी लक्ष्मीचंदनी को भेजा, आपने जोधपुर जाकर कुछ लुटेरों को गिरफ्तार किया।
चंद दिनों बाद एक खरीता जिसमें हरिसिंह बीदावत आदि जो अल्वर के इलाके में उत्पात मचा रहे थे उन्हें गिरफतार करने के लिए फिर आया । इस कार्य के लिए महाराजा साहबने लक्ष्मीचंदजी को नियुक्त किया पर रावजी कई मास होने पर भी उस लुटेरे को गिरफ्तार करने में असमर्थ रहे।
वि० संवत १९०१ से १९०५ तक शाह हुकुमचंदनी तथा लक्ष्मीचंदजी दीवान रहे।
वि० संवत १९०६ में शाहजी लक्ष्मीचंदजी तथा माणेकचंदजी दीवान रहे । इस खिदमात में आपको महाराजा साहबकी ओरसे एक हाथी व मोतियों के चौकडे के रूपये प्रदान किये गये । वह बात रक्को में इस प्रकार है:
|| रु. १०००) अखरे रु० हजार शाह लखमीचंद माणकचंद नै दिवानगिरी खिजमत इनायत कीना तारां हाथी बगसीयो तेरी कीमतरा दिराया छै तैरा खजानची भोमपाल देजो । आकरा खरा पावै ते ठौड रा नमांखरच कर लेजो । द. अचारज ठाकरसी सं १९०६ फागण सुदी १
श्री हजुर दफतर सही रजु दफतर
॥ इसी प्रकार सं० १९०६ मिती फागण सुदी १ दिवानगीरी खिजमत इनायत मोतीयां के चौकडेरा रु. ५००) साह लिखमिचंद को दिराया।
वि. सं० १९११ [ ई० स० १८५४ ] में चुरुषाले इसरीसिंहने चुरुपर कब्जा कर लिया जब शाहजी लक्ष्मीचंदजी बीदासर ले चुर पहुंचे और उनसे झगडा करके चुरु खाली कराई । नारायण दारोगा काम आया। इस खिदमात में शाहजी को श्रीजी साहिबने खिल्लत व पैरमें सोने का खानदानी कडा बख्सा।
वि० सं० १९१४ [ ई० स० १८५७ ] गदर के वक्त बीकानेर से जो फौज हांसि-हिसार अंग्रेजों को सहायता देने के लिए भेजी गई थी उसमें लक्ष्मीचंदजी सुराणा भी प्रधान थे हांसी में अचानक ज्वर फैल जाने से बहुत से बीकानेरी सैनिक अकाल ही काल के ग्रास हो गये, जिनमें प्रधान मोतमिद लक्ष्मीचंदजी भी थे।
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