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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [338] શ્રી જેન સત્ય પ્રકાશ [१५ घरांगनेव सर्वाङ्गैर्वरांगचरितार्थवाक् ॥ कस्य नोस्पादये गाढमनुरागं स्वगोचरम् ।। ३५॥ ___ आ०जिनसेनकृत हरिवंशपुराण परि० (ई. स. ७८३) काव्यानुचिंतने यस्य, जटाप्रबलवृत्तयः । अर्थान् स्माऽनुवदन्तीघ, जटाचार्य स नोऽवतात् ॥५०॥ आ०जिनसेनकृत आदिपुराण अ०१ (इ. स. ८३८) मुणिमहसेणु सुलोयणु जेण, पउमचरिउ मुणिरविसेणेण ॥ जिणसेणेण हरिवंमु पवित्तु, जटिलमुणिणा यरंगचरितु ।। --कविधवल कृत अपभ्रंश हरिवंश (इ. स. ११ वीं शतारिद) घरांगचरित्रकी ताडपत्रपर शक सं. १६५८में लिखी हुई सिर्फ एक प्रत कोल्हापुरके लक्ष्मीसेनके मठमें सुरक्षित है। जिसके १४८ पत्र है। सार्थक नामवाले ३१ अध्याय है, प्रथम अध्याय वसन्ततिलकावृत्तमें है। केवल दो काव्य --पुष्पिताग्रामें है, विशेष अध्याय व श्लोक उपजातिमें है और जिसमें करीब करीब प्रचलित सभी छंदके काव्य है । इसके उपर से कधि वर्धमान और पं. धरणीने घरांगचरित्र बनाए मिलते हैं। वरांगचरित्रका मंगलाचरण इस प्रकार है श्रहेखि लोकमहितो हितकृत् प्रजानाम्, धहिती भगवतस्त्रिजगच्छरण्यः । ज्ञानं च यस्य सचराचरभाषदर्शि, रत्नत्रयं तदहमप्रतिम नमामि ॥१॥ प्रथम अध्याय, "लोक ७०के अन्त में " इति धर्मकथोद्देशे चतुर्वर्गसमन्विते स्फुटशब्दार्थसंदर्भ वरांगचरिताश्रिते जनपद-नगर-नृपति-पत्नी-वर्णनो नाम प्रथमः सर्गः ॥ इस वरांगचरित्रको देखकर शोलापुरके पं. जिनदासने प्रश्न उठाया है कि "जटिल कवि श्वेताम्बर थे या दिगम्बर ? घरांगचरित्रमें हम देखते हैं कि वरदत्त गणधर एक पत्थरके पाटिये पर बैठकर धर्मोपदेश करते हैं, यह दिगम्बर सिद्धान्तके विरुद्ध है। उनके मतानुसार केवली समघसरण या गन्ध कुटीमें बिराजमान रहते हैं। आगे स्वर्ग भी बारह ही बतलाए हैं, जबकि दिगम्बर समुदायमें १६ स्वर्ग माने गए हैं। --जैनदर्शन, घ. ८, अं. ६, पृ० २४६को फुटनोट । इसके अलावा परांगचरित्र, अ० में १६वां श्लोक है कि..... मृत्-चालनी-महिष हंस-शुक-स्वभावाः । मार्जार-कक-मशका-ऽज-जलूकसाम्याः ॥ सच्छिद्रकुम्भ-पशु-सर्प-शिलोपमानाः । स्ते श्रावका भुवि चर्तुद राधा भवन्ति ॥१५॥ नदीसूत्रमें श्रोताओं (श्रावकों) के लक्षण स्पष्ट करने के लिए "सेलधण" इत्यादि दृष्टान्त दिए है। प्रस्तुत श्लोक ठीक उसीका ही संस्कृत अनुवाद For Private And Personal Use Only
SR No.521569
Book TitleJain_Satyaprakash 1941 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1941
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size26 MB
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