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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [१३४] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [વર્ષ ૬. संख्या बराबर बनती है। यह कम चित्रकारकी तरह नाना रूप बनानेके स्वभाववाला है। गौत्रकर्मका काम उच्च नीचपनेको जाहिर करनेका है। उच्च गौत्र पूज्य एवं आदरणीय कुलोमें जन्म देता है और नीच गौत्र अपूज्य-अनादरणीय अधम कुलोमें जन्म देता है, जैसे मदिराका घट अपूज्य और देवपूजाके कार्यमें लिया हुआ घट पूज्य माना जाता है । इस उच्च नीच गौत्रका भी ऐसा ही हाल है: एक ऊंचे चढाता है तो दूसरा नीचे गिराता है। उच्च और हलकी कोमोमें जन्म देना यह इसका कर्तव्य है। इसकी २० कोटीकोटी सागरोपमकी उत्कृष्ट स्थिति है और २००० वर्षका उत्कृष्ठ अबाधाकाल है। अन्तराय कर्मके पांच भेद है जिनके नाम-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय हैं । ये अनुक्रमसे दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में रुकावट करते हैं । जीव दान देना चाहे और उसके पास देनेकी सामग्री पडी हे फिरभी दानान्तरायसे दान नहीं दे सकता । ऐसे ही लाभ किसीको भी अप्रिय नहीं परन्तु उसका अन्तराय लाभ नहीं लेने देता । इस तरह भोग-एक दफा भोगमें आनेलायक चीज जैसे भोजन-पान-पुष्पोंकी माला आदि एक ही बार भोगे जाते है-उसका अन्तरायकर्म भोग नहीं भोगने देता। उपभोग-जो चीजे वारंवार भोगमें आसकती हो जैसेकि गृह-आराम यनिता और आभूषण आदि-इनके उपभो गको चाहता हुआ भी जिस कर्मसे नहीं प्राप्त होता है उसको उपभोगान्तराय कहते हैं। आत्मामें अनन्त शक्ति होने पर भी किसी आवश्यक कार्यमें अपना बल नहीं लगा सकता है उसमें वीर्यान्तराय कर्म कारणरूप बनता है। मतलबकि कर्म वीर्यको अटकाता है। इसकी स्थिति ३० कोटीकोटी सागरोपमकी है और अबाधाकाल ३००० वर्षका है। कोइ राजाका खजानची राजासे विरुद्ध हो तो जैसे राजा चाहे मगर द्रव्य नहीं देता इसी प्रकारका इस कर्मका स्वभाव है। जीव महाराजा चाहता भी हो मगर यह अन्तराय कर्म उसकी चाहनाको पूरी नहीं होने देता। अन्तमें--पाठकोंको मृचित करता हूं कि यह विचार बहुत ही संक्षेपसे किया गया है फिरमी लेग्यका कद इतना बढ़ गया है कि इसके ध्रुवबंध, अध्रुवबंध, परावर्तनीय, अपरावर्तनीय, प्रकृतिबंध, रसबंध, प्रदेशबंध, स्थितिबंध, उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट. जघन्य, अजघन्य, आश्रित, मादि अनादिका भंग प्रकरण, कर्मोंकी सिद्धि, आत्माकी सिद्धि आदि अनेक नानने योग्य विषय स्थगित रखने पडे है । प्रभुदर्शनीय कर्म विचारको संपूर्ण जान लेनेसे हममें किसी तरहकी भ्रान्ति नहीं रह सकती कि-हे प्रभो! तुने ऐसा क्यों किया? ऐसा क्यों न कीया? हमारे सब ही सुख-दुःखादि व्यवहार हमारे कर्मके ही आधीन है। (समाप्त) For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
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