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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ गुण इति दव्वविधाणं दववियारो य पन्जयो भणिदो । तेहि अणूणं दव्वं अजुदवसिद्धं हवदि णिचं" | राजवार्तिक --यहाँ कथन के पूर्वापरसंबंध को देखते हुए जान पड़ता है कि 'अर्हत्प्रवचन' पद या तो ' अर्हत्प्रवचनहृदय ' के स्थान पर अशुद्ध छपा है, और या वह उसका संक्षिप्त रूप है। (ख) 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामका कोई अति प्राचीन सूत्रग्रंथ था। यह ग्रंथ उमास्वाति के पूर्ववर्ती होना चाहिये । इसो ग्रंथ में 'गुण' तत्वका विधान है; उमास्वाति ने वहीं से उसका ग्रहण किया है । " द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः " सूत्र यद्यपि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र में पाया जाता है, परन्तु वह मूलतः उमास्वाति के तत्वार्थसूत्र का नहीं हो सकता। यह सूत्र 'अर्हत्प्रवचनहृदय में से उमास्वाति ने अपने तत्वार्थसूत्र में लिया है। उमास्वाति का तत्त्वार्थसूत्र ‘अर्हत्प्रवचन का एकदेशसंग्रह' है, अतएव उक्त सूत्र के 'अर्हत्प्रवचनहृदय में से लिये जाने में कोई आपत्ति की बात भी नहीं। उक्त सूत्र इस लिये भी उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का नहीं हो सकता कि उमास्वाति की सूत्ररचना पर उठाई गई उक्त आपत्ति का परिहार उन्हीं के शास्त्र-वाक्य से नहीं किया जा सकता। 'अर्हत्मवचन' और 'अर्हत्प्रवचनहृदय' तत्त्वार्थभाष्य के तो क्या मूलमत्र के भी उल्लेख नहीं हैं। (ग) अकलंक के राजवार्तिक में अन्यत्र भी “ आर्हते हि प्रवचने अनादिनिधने," " अर्हता भगवता प्रोक्ते परमागमे" आदि अवतरणों में 'अहत्प्रवचन' के उल्लेख आते हैं, लेकिन ये उल्लेख किसी भी हालत में तत्त्वार्थभाष्य के वाच्य नहीं हो सकते । मेरा वक्तव्य __(क) यहाँ पहले राजवार्तिक के अर्हप्रवचनहृदयवाले उल्लेख का आशय समझ लेना चाहिये । बात यह है कि " गुणाभावादयुक्तिरिति चेन्नार्ह प्रवचनहृदयादिषु गुणोपदेशात्-" इस वार्त्तिक में अकलंक ने • गुण' के ऊपर शंका उठाई है । वे कहते हैं कि आर्हत् मतवालों के अनुसार द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ये दो ही मूल नथ माने गये हैं। अतएव यदि 'गुण' कोई अलग वस्तु है, तो गुणार्थिक नामका तीसरा नय भी मानना चाहिये। परन्तु गुणार्थिक नय कोई तीसरा मूल नय नहीं है। इसलिये "गुणपर्यायवद्रव्यं " सूत्र में 'गुण' का व्यपदेश नहीं बन सकता । इस शंका के समाधान में अकलंक कहते हैं कि नहीं, यह बात नहीं। अर्हत्प्रवचनहृदय आदि में गुण का उपदेश है-वहाँ गुण का लक्षण कहा गया है। तत्पश्चात् अर्हत्प्रवचन तथा एक और ग्रंथ के प्रमाण उद्धृत किये गये हैं। ___यहाँ पहली बात ध्यान रखने की यह है कि अर्हप्रवचन और अर्हप्रवचनहृदय ये दोनों एकार्थक हैं, इसकी चर्चा मैं अपने पूर्व लेख में कर चुका हूँ। ' अर्ह प्रवचन' पद के For Private And Personal Use Only
SR No.521565
Book TitleJain_Satyaprakash 1940 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size27 MB
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