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मूलाचार [ दिगम्बर मुनिओं का एक प्राचीन और प्रधान आचारशास्त्र]
लेखक ----मुनिराज श्री दर्शन विजयजी अवतरण:
मैं दिगम्बर शास्त्र कैसे बने' के प्रथम भाग में लिख चुका है कि वोर्गनर्वाण की छठी शताब्दि तक जैन संघ अभिन्न रहा और अन्त में आजीविक, अबद्रिक, त्रैराशिक व बोटिक इन चार सम्प्रदायों ने मिलकर संघ में भेद कर दिया ।
वी० नि म०६०१ के बाद जा परपरागत मघ था उसने तो आगम के रक्षण के निमित्त प्राचीन कार्यक्रम जारी रक्खा, सम्यगदर्शन-ज्ञान व चारित्र की बुद्धि के साथ आगम के पठन-पाठन का प्रवाह अच्छे ढंग से चलने लगा। मगर दिगम्बर संघ के मुनि वस्त्ररहित रहते थे, जंगल में रहते थे, नया मत निकलने से संख्या में भी अल्प थे । ऐसी परिस्थिति में उनका ज्ञान विलुप्त होने लगा । दिगम्बर मत चला तब कोई ज्ञानवाला भी होगा। मगर बाद में तो पठन पाठन बिलकुल छूट गया । उनके वर्ताव जिनागमों से खिलाफ थे अतः उन्हें जिनागम को आगम मानना मुनासिब नहीं लगा । फलस्वरूप यही कहा जाय कि वी. नि० सं०६८३ में दिगम्बर संघ के पास जिनवरेन्द्रकथित जिनवाणी का एक शब्द भी न था।
ऐसी निरक्षर दशा कहां तक चल सकती थी ? इससे कई विद्वानों ने उद्यम किया । शुरू में शिवभूतिजी ने चारित्र के लिये जो कठिनता करदो थी उसमें कुछ शिथिलता करनी पडी । वे जानते होंगे कि स्याहाद से तो श्वे० मत ठीक है, मगर उसका स्वीकार कैसे किया जाय? बस ! अपने में ही संस्कार करना अच्छा माना गया । उपधि व ज्ञानोपकरण को कुछ अवकाश मिला । बाद में तो "विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः" कानून के अनुसार धन पैसा रखने तक की भी इजाजत दी गई । आ० वसन्तकीर्तिने श्वेताम्बरों की नकल की, कपड़े पहन लिए। थोड़े ही काल में दि० मुनि संघ न श्वेताम्बर रहा न दिगम्बर रहा, भट्टारक बन गया।
दूसरी ओर से साहित्यसर्जन का उद्यम जारी था। कर्मप्राभृत, दोप
१ उपधि, मुनियों को ज्ञानोपधि संयमोपधि एवं और भी उपधि होती है। म. [१.१४] (३-७)। ज्ञानोपकरण-कागद शाही बंधन वस्त्र पाटी कवली वगैरह का संग्रह, धनसंग्रह-आ. इन्द्रनन्दी फरमाते है कि "आचार्य समय काल के अनुसार संघ पुस्तक की वृद्धि, निमित्त द्रव्य का संग्रह करे [नीतिसार प्रलोक ८६] गुरु सार्मिक द्रव्यसंग्रह (मूलाचार गाथा १३८)।
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