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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १] મૂલાચાર [८] की कई गाथाएं ज्यों की त्यों रख दी है-जिनके नम्बर निम्न प्रकार हैंआ० गा. मू० गा० सं० गा० मू० गा . म. गा० मू० गा० ११० ४९ ११४ नकल करने के अन्य नमुने देखिएपस करेमि पणामं जिणवसहस्स बद्धमाणस्स । सेसाणपि जिणाणां सगणगणधराणां च सम्वेसिं । आ० १४ । चौथे चरण में अन्तर कर दिया है-सगणगणधराण च सम्वेसि ।। मू० १०८ हुजा इममि समए उपक्कमो जीविअस्स जइ मन्ज़ । पअं पच्चक्खाणं विउला आराहणा होउ | आ० १८॥ १-४ पदों में अन्तर करके बनाया है-पदम्मिदे सयाले, णिस्थिपणे पारणा हुज ॥ मू० ११२ ॥ इक्क पंडियमरणं छिदइ जाई सयाई बहुयाई । तं मरणं मरियव्वं जेणमयं सुम्मय होइ ॥ महापच्चरखाण पइन्नय गा० ४९, मूलाचरण गाथा-७७,११७ । नत्थि भयं मरणसमं नम्मसरिसं न विजए दुक्ख । जम्मण-मरणायकं छिदममत्तं सरीराओ ॥ सं० ९८ । मू० ११९ । संलेषणा के अधिकार में दूसरे परिच्छेद की अन्तिम गाथा जितनी विषयसंगत है तीसरे परिच्छेद की अन्तिम गाथा उतनी ही विषय के असंगत है यानी भद्दी सी मालूम होती है । उस गाथा को देकर ग्रन्थकार ने कमाल ही कर दिखाया है। परिच्छेद ४, समाचाराधिकार, गाथा-५६ ( १२२ से १७७ ) यह चौथा परिच्छेद आवश्यकनियुक्ति और ओघनियुक्ति से बनाया है। जिसकी १३१ से १३७ गाथाएं आवश्यकनियुक्ति (गाथा ६६६ से ६६९ ६७६, ६८४, ६८८, ६९१, ६९७ ) से ली है । १५५-१२६-१२७ गाथाएं कुछ परिवर्तन के साथ उत्तराध्ययन सूत्र से ली गई हैं और कुछ विभाग ओघनियुक्ति से संगृहीत किया है । जहां जहां दि० का विधिभेद है वहां बडी सफाई से विभिन्नता दाखल कर दी है। नमूने के तौर पर कितनीक गाथाओं पर दृष्टि डालिए:-- इच्छामिच्छा सहाकारो आवसिया य निसीहिया । आपुच्छणा य पडिपुच्छा छंदणा य नियंतणा । आ० नि० ६६६ । उवसंपयायकाले . सामाचारी भवे दसहा ।।आ०नि०६६७ ।। इच्छामिच्छाकारी तथाकारो य आसिया णिसिही। For Private And Personal Use Only
SR No.521562
Book TitleJain Satyaprakash 1940 09
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages54
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size25 MB
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