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[३४२]
શ્રી જેને સત્ય પ્રકાશ
[વર્ષ ૫
अध्याबाधाः सपदि विबुधाः सच्चिदानंदलीनाः, पुण्यापीना अनरममरं संश्रयं संश्रयते । यस्मात् पीत्वा समशमसुधी तं जिनेंद्र त्वदीयं, सारं धीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे ॥ १२ ॥ ये दुर्गाश्चोपसर्गा भवति कुमतिना संगमेनाहतास्ते, तस्यैवास्तंगमायाऽजनिषत तदनुध्यानसंधानदष्टैदेवैर्दिव्या समोदं तव शिरसि तदा पुष्पवृष्टिविचक्रे, आमूलालोलधुलीबहुलपरिमलालीढलोलालिमाला ॥ १३ ॥ शांतं कांतं नितातं निरुपमसुखमालाभर्वतं भवंतं, दृष्टवा लीना स्वयं सा जिनवर! कमला चंचलाऽपि स्वभावात् । विन्यस्ता शोरिणा या विधिसविधगता न स्थिता षट्पदाली, झंकारारावसारामलदलकमलागारभूमीनिवासे ॥ १४ ॥ केचिद् हायंति देवाः प्रमदभरभृता नाथ नृत्यंति केचित् , स्नाते जाते सुमेरौ त्वयि जनिसमये रत्नसिंहासनस्थे । रम्यक्षौमावृतांगे मृदुतरचरणाभासुरस्फारमौलि--- छायासंभारसारे वरकमलकरे तारहाराभिरामे ॥ १५ ॥ सिंहाकः सप्तहस्तप्रमिततनुरयं संपदः सर्वभव्या--- देया देयाद् यदीयाननकमलभवा द्वादशांगीमयांगी । दक्षौ मोक्षोपयोगी वदति भगवती भारती नित्यमेवं वाणीसंदोहदेहे भवविरहवरं देहि मे देवि सारम् ॥ १६ ॥ एवं देवाधिदेवः सदतिशयचयैः सर्वत: शोभमानः, काव्यैः संसारदावास्तुतिपदकलितैः कोविदैर्वर्ण्यमानः । सधेयस्त्रैशलेयः स भवतु भविनां भूतये वर्द्धमानः, ज्ञानाभःसागरांभः सकलसुखकरः श्रीजिनो वर्द्धमानः ॥ १७ ॥
॥ इति श्री महावीरस्तवनम् ॥ इस स्तवन का एक पत्र हमारे संग्रह में है और इसकी सुसरी प्रति बिकानेर स्टेट लायब्रेरी में है।
"जैन पादपूर्ति साहित्य के सम्बन्ध में मेरा एक लेख 'जैन सिद्धान्त भास्कर' के भा. ३ कि. १ में प्रकाशित हुआ था । उसके पश्चात् खोजशोध करते हुए अन्य कई पादपूर्ति रचनाओं का पता चला है। उनमेंसे हमारे संग्रह में भी 'संसारदावा' स्तोत्र के समग्र पादपूर्तिरूप स्तोत्र उपलब्ध हुआ है। वह अप्रकाशित होनेसे उसे यहां प्रगट किया जा रहा है । जैनस्तोत्र साहित्य बहुत ही विशिष्ट एवं विशाल है, कई कई रचनाऐं तो सचमुच जैन समाज के गौरव की वस्तु है, उनमेंसे चुन चुन कर प्रगट करते रहने का हमारा विचार है । अन्य विद्वानों से भी निवेदन है कि वे भी इसी प्रकार विशिष्ट रचनाओं को मूल रूप से प्रगट कर सके तो अच्छा ही है, अन्यथा उसका परिचय तो अवश्य ही प्रगट करते रहे।
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