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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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आर्यावर्त का धार्मिक वायुमण्डल मुस्लिम युग में संक्षुब्धसा हो उठा था, जब सं० १५३० में श्रीमान् लोकाशाह ने लोंकामत चलाया । सम्भवतः विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारंभ या कुछ पूर्वकाल में उस मत के उत्तराध गच्छ ने पंजाब पर अपना प्रभाव डाला और अंबाला प्रमुख स्थानो में लोंकामत फैल गया २ 1
स्थानकमार्गी ( बाईस टोला ) ( वि० १८ वीं शताब्दी ) - लौकामत से उत्पन्न स्था० संप्रदाय ने तो पंजाब में अपना प्रचार किया, उन साधुओं का एफा टोला ही " पंजाब- संप्रदाय के नाम से ख्यात हो गया और संभवतः भावडागच्छ, तपगच्छ, खरतरगच्छ और लॉकागच्छ के सब श्रावक इसमें शामिल हो गये । आज भी पंजाब में "पंजाब सम्प्रदाय का धर्मप्रचार जारी है । पंजाब में स्थानकमार्गी संप्रदाय से एक अजीवमत " नामका संप्रदाय भी निकला है ।
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वीशवीं शताब्दी के प्रारम्भ में स्थानकमार्गी सम्प्रदाय के नायक पू० अमरचंद्रजी थे । इन्हों ने स्थानकमार्गी संप्रदाय के हित के लिये काफी प्रयत्न किया है । बाद में स्था० पू० सोहनलालजी का नाम आता है । स्था० जैन संम्प्रदाय इनका अधिक ऋणी है । पत्रीचर्चा से आपके ज्ञान और प्रभाव का ठीक परिचय मिलता है । वर्तमानकाल में स्था सम्प्रदाय में
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२ वि० सं० १५३० में तपगच्छीय श्री० ज्ञानचंद्रजी के लेखक लोंकाशाह से लोंकामत ( लुम्पकमत), सं० १५७० में लोंकामती बिजा से विजयमत, सं १७०९ में लोंकामती ऋषि बजरंग के शिष्य ऋषि लवजी से बाईसटोला ( स्थानकमार्ग ), और स्थानकमार्गी भीखमजी ऋषि से तेरा पंथ मत का प्रादुर्भाव हुआ है । लोंका और तपाका सर्व प्रथम भेद मोरबी (काठि आवाड ) व सिद्धपुर में हुआ था। पंजाब के उत्तराध गच्छ के अंतिम यति उत्तम ऋषिने पू० श्री मूलचंद्रजी म० के करकमल से आ० श्री आत्मारामजी म० के साथ ही संवेगीपना स्वीकारा था। आप आचार्यजी के शिष्य थे, आपका नाम रक्खा गया था मु० म० श्री उद्योतविजयजी | लोकमत में प्रारंभ में प्रतिमापूजा, सामयिक, प्रतिक्रमण, पौषध और दान वगैरह की मना थी मगर बाद में इन कार्यों का स्वीकार किया गया है। लोकागच्छ के मन्दिर और श्रावक आज काफी तादात में हैं । श्रीमान् पूरनचंद्रजी नाहर वगैरह लोंकागच्छ के श्रावक थे ।
(देखो, पट्टावली समुच्चय, श्रीमान् लोकाशाह, क्रांतिकारी जैनाचार्य ) ३ प्रमाण मिलता है कि-तपगच्छ ( बड़गच्छ ) के यति रामसुखजी, खरतरगच्छ के यति मोतिचन्दजी, और शामलीवाले यति नेनसुखजी वगैरह विक्रम की वीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक पंजाब में विद्यमान थे ।
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