SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 12
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ २२८ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष । आपके शिष्य वा. मानसिंहजी और भानुचंद्रजी सम्राट् के साथ कश्मीर गये थे । लाहोर में वा मानसिंहजी को आचार्य पद प्रदान वगैरह महोत्सव मनाये गये थे, उस समय सम्राट् ने खंभात के अखात में एक वर्ष पर्यंत जलचर जीवों के रक्षणका फरमान समर्पित किया । आ. जिनचंद्रसूरिजीने आ. श्री हीरविजयसूरीश्वरजी के प्राभाविक प्रयत्न और उनके कार्य की सफलता को सामने पेशकर के सम्राट से आषाढी चौमासीका सप्ताह ( शु. ९ से १५ ) तक अमारी पालने की मांग की और सम्राट्ने उसे मंजूर रक्खा । सम्राट्ने इसके लिये एक फरमान समर्पित किया था वह गुम हो गया अतः वि. सं. १६६१ में दूसरा फरमान दिया। खुशी की बात तो यह है कि प्रथम फरमान में तो आ हीरविजयसूरि का काफी जिक्र होगा किन्तु उसके गुमहोने के बाद दूसरे फरमान में भी सम्राट् अकबरने उनका जिक्र किया है । इसीसे पता चलता है कि उस समय में मुगल दरबार में आ हीरविजयसूरि का नाम कितना गौरव युक्त था, और सम्राट् अहिंसा के विधान में किस प्रकार उन्हें याद रखते थे । आपके पट्टधर आ. जिनसिंहसूरि ने भी मुगल दरबार में विशेष सम्मान पाया था और यदि जहांगीर के रोष का कारण उपस्थित न होता तो ये भी उ. भानुचंद्र के समान अच्छी धर्मप्रभावना करते; ऐसा "तौज-के-जहांगीरी " के उल्लेखसे पता लगता है । उपाध्याय भानुचन्द्रजी ने लाहोर में शान्तिस्नात्र महोत्सव करवाया जिसमें आप भी सहयोगी थे । सम्राट् अकबर ने इसी समय आ. होरविजयसूरिजी और आ. विजयसेन सूरिजी को यहां पधारने का आमंत्रण भेजा था । मंत्री कर्मचन्द्रजीने इस समय यहां दादावाडी का निर्माण किया । आपके उ. जयसोमने सं. १६५० में लाहोरा में कर्मचंद्र प्रबंध बनाया, और उ. समयसुंदरजीने सं. १६७६ में लाहोर में ' अष्टलक्षी ' बनाई । उस मुगल युग में पंजाब पधारनेवाले आदिम आचार्य आप ही हैं । ( देखो - यु. श्री जिनचंद्रसूरि, ओसवाल पाक्षिक ) २ फरमान के श्रीयुत देवीप्रसाद जी मुन्शीकृत हीन्दी अनुवाद में लिखा है कि उसने प्रार्थना की कि इससे पहिले हीरविजयसूरि ने सेवा में उपस्थित होने का गौरव प्राप्त किया था और हरसाल बारह दिन मांगे थे, जिनमें बादशाही मुल्को में कोई जीव मारा न जावे और कोई आदमी किसी पक्षी, मछली और उन जैसे जीवों को कष्ट नदे। उसकी प्रार्थना स्वीकार हो गई थी । अब मैं भी आशा करता हूं कि एक सप्ताह का और वैसा ही हुक्म इस शुभ चिन्तक ( जयचन्द सूरि ) के वास्ते हो जाय । ( देखो - सरस्वती, सन् १९१२ जून, पृ. २९३ ) For Private And Personal Use Only
SR No.521555
Book TitleJain Satyaprakash 1940 03 SrNo 56
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1940
Total Pages46
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy