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________________ અંક ૪] ફલોધી–પાશ્વનાથજીકે પ્રતિષ્ઠાપક [२७] किन्तु इस समय यहां वीर-भवन का कोई खण्डहर चिह्न भी विद्य. मान नहीं है। उसके पश्चात् जब फिरसे गांव वसा, महाजन लोगों की वस्ती हुई, तब भगवान पार्श्वनाथ का बिम्ब प्रगटा, जिनालय निर्मित होकर प्रतिष्ठा हुई। यह घटना वि. सं. १९८१ और सं. १२०४ के मध्य की है । इस विषय के कुछ प्राचीन उल्लेख यहाँ दिये जाते हैं १ राजगच्छीय शीलभद्रसूरि के पट्टधर श्री धर्मघोषसरिने सं. १९८१ में पार्श्व-चैत्य की प्रतिष्ठा की। निर्माता का नाम श्री श्रीमालवंशज धंधल श्रावक लिखा है। [विविधतीर्थकल्प, पृ. १०५-६ ] __ २ देवसरिने धामदेव गणि और सुमतिप्रभगणि को वासक्षेप देकर भेजा। सं. ११९९ (पाठान्तर १९८८) फागुण सुदि १० को बिम्बस्थापन किया। सं. १२०४ माघ सुदि १३ शुक्रवार को देवग्रह निर्माण हो जाने के पश्चात् श्री जिनचन्द्रसूरि के वासक्षेप द्वारा कलश व ध्वजारोपण हुआ। श्रावक का नाम पारस लिखा है! [पुरातन प्रबंन्ध संग्रह, पृ० ३१ । ३ वादिदेवसूरि मेडता चौमासा कर फलौधी आए तब पार्श्वबिम्ब प्रगटा। चैत्य निर्माण हो जाने पर सं. १२०४ में उनके शिष्य श्री मुनिचन्द्रसूरिने प्रतिष्ठा की। निर्माता पारस श्रावक था। [सोमधर्म कृत उपदेशसप्तति] ४ सं. १२०४ में वादिदेवसरिने प्रतिष्ठा की प्रसिद्ध है। [ धर्मसागरीपाध्याय कृत तपा पट्टावली ] इन चारों उल्लेखों में १ धर्मघोषसरि और २ वादिदेवमूरि या उनके शिष्यों के प्रतिष्ठा कराने का निर्देश है। दोनों आचार्य समकालीन थे अतएव किन्होंने प्रतिष्ठा कराई यह विचारणीय है। ___ इनमें प्राचीन प्रमाण श्री जिनप्रभसूरिजी का है। वे विविध तीर्थ कल्प में धर्मघोषसरिजी के प्रतिष्ठा कराने का उल्लेख करते हैं। इस देश में धर्मघोषसरि विचरे भी हैं, उनके परम्परावाले महात्मा लोग अब भी नागोर में निवास करते हैं। फलोधी पार्श्वनाथ के मन्दिर में सं. १६२५ के फागुण वदि १० गुरुवार, मूल नक्षत्र, सिद्धियोग में प्रतिष्ठित श्री धर्मघोषसरिजीके चरण भी विद्यमान हैं। किन्तु वादिदेवमूरिजी की प्रतिष्ठा का उल्लेख भी कम प्रामाणिक नहीं हैं, अतएव जबतक कोई इनसे अधिक प्राचीन प्रमाण न मिल जाय, निर्णय करना कठिन है। श्री जिनप्रभसूरिजी महाराज आगे चलकर लिखते हैं कि थोडे वर्ष बाद कलिकाल के प्रभावसे अधिष्ठायक देव की अविद्यमानता में यवनों ने उत्पात मचाकर मन्दिर का भंग कर दिया। संघ ने जीर्णोद्धार कराया। गर्भगृह के प्रवेश द्वार की सं. १२२१ की लक्ष्मट श्रावक की प्रशस्ति में उत्तानपट कराने का उल्लेख है। इस प्रतिष्ठा का उल्लेख एक प्राचीन गुर्या For Private & Personal Use Only Jain Education International fAww.jainelibrary.org
SR No.521540
Book TitleJain Satyaprakash 1938 11 SrNo 40
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size858 KB
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