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श्री सत्य आश-विशेis [१५४ पविभत्ती ३ अंगचूलिया ४ वग्गचूलिया ६ अरुणोववाए ७ वरुणोववाए ८ गहलोषवाते ९ वेलंधरोववाते १० वेसमणोषवाते ।
व्यवहार सूत्र में कितने वर्षोंकी साधुपर्यायवाला कौनसा आगम पढ सके इसके उल्लेखमें निम्नोक्त आगमोके नाम हैं:
३ ४सायारकप्प । ४ सुयगड । ५ दसा, कप्प, यवहार । ८ ठाण, समवायांग (टी. वर्षपर्याय ६ से ९)। १० विवाह ( पन्नत्ति)।११ पखुड्रियाविमाणपविभत्ती, महल्लयाविमाणपविभत्ती, अंगचूलिय, वग्गचूलिया, विवाहपूलिया ( भाष्ये-महाकल्प टी. उपासकदशादि ५-५)। १२ "अरुणोववाए, गरुलोववाए, वरुलोक्वाए वेसमणोववाए, वेलंधरोववाए। १३ उठाणसुए, समुट्ठाणसुप, देविदोषवाए, णागपरियावणियाए। १४ सुमिणभावणा (टी. महास्वप्नभावना) १५ चारणभावणा । १६ तेअनिसग्ग ।
३. १ विपाकसूत्र (११ वां अंग), २ सातवां अंग, ३ आठवां अंग, ४ नवमा अंग और ५ दशाश्रुतस्कंध; इन उपर्युक्त पांच उपलब्ध ग्रंथों में नं. ५ के अध्ययन उपरके उल्लेखानुसार ही हैं । नं. १,२,३,४ के अध्ययनों के क्रम व नामों में फेरफार है वह विचारणीय है । नं. ६,७,८,९,१० ये पांचों अनुपलब्ध हैं।
नं. ६ के नामसाम्यानुसार प्रश्नव्याकरण दसवां अंग माना जाता है, पर समवायांगसूत्रके उल्लेखानुसार नहीं मिलता है । टोकाकारने भी लिखा है-'प्रश्नव्याकरणदशा इहोक्तरूपा न दृश्यंते, दृश्यमानास्तु पंचाश्रवपंचसंवरात्मिका इति' । नं. ७,८,९,१० के स्वरूपसे भी टीकाकार अज्ञात थे, याने वे बहुत पहलेसे विच्छिन्न हैं। टीकाकार लिखते हैं तथा बंधदशा-बिगृद्धिदशा-दीर्घदशा-संखेपिकदशाश्चास्माकमप्रतीता इति' । नं. ८ का स्वप्नों संबंधी वर्णनवाला 'महासुमिणभावणा' होगा। नं. ९ के कई अध्ययन निरयावलिकामें हैं, छठा अध्ययन 'दीपसागर प्रज्ञप्ति' होगा। इनके तथा नं. १० के अध्ययनों के नाम नंदी, पक्खि तथा व्यवहारसूत्र में आते हैं । इसी प्रकार समवायांगमें भी कई आगमों की अध्ययनसंख्या आदिका जिक्र है। वर्तमानमें उन उन ग्रंथोंके उतने व उन नामोंके अध्ययन हैं या नहीं यह भी मिलान करना परमावश्यक है।
४. यह अंक साधुपर्यायके वर्षके सूचक हैं ।
५. स्थानांगके उल्लेखानुसार ये १० ग्रन्थ स्वतंत्र न हो कर ‘संक्षेपित दशा' के १० अध्ययनरूप थे । व्यवहारसूत्र में भी इन्हें अध्ययन कहा है।
६. स्थानांगके उल्लेखानुसार यह 'दोगेहिदसा' का अध्ययन विशेष होगा, या उन्हींके आधारसे रचा गया होगा।
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