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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
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(६) द्वादशव्रतस्वरूप । (७) कुरुकुल्लादेवी स्तुति। (८) पाश्वधरणेन्द्रस्तुति । (९) कालिकुण्ड पार्श्वजिन स्तवन । (१०) यति दिन चर्या । (११) जीवाभिगम लघुवृत्ति । (१२) उपधानस्वरूप । (१३) प्रभात स्मरण स्तुति । उपदेश कुलक । (१५) संसारोद्विग्न मनोरथ कुलक।
वादिदेवसरिने साहित्य सेवाक अतिरिक्त अनेक जनेतरों को जैन बनाए हैं। उनकी संख्या लगभग तीस हजार की मानी जाती है। इसके अतिरिक्त उन्होंने धोलका, पाटन, फलोदी, आरासण आदि गांवों में प्रतिष्ठा भी करवाई है। उनके दीक्षित किये हुए शिष्यों की संख्या सेंकडों की थी। जिनमेंसे मुख्य शिष्यों के नाम निम्नलिखित है:
(१) भद्रेश्वरसूरि । (२) रत्नप्रभसूरि । (३) माणिक्य । (४) अशोक । (५) विजयसेन । (६) पूर्णदेवाचार्य । (७) जयप्रभ । (८) पद्मचन्द्रगणि । (९) पद्मप्रभसूरि । (१०) महेश्वरसरि । (११) गुणचन्द्र । (१२) शालीभद्र । (१३) जयमंगल । (१४) रामचन्द्र ।
उनके गृहस्थ शिष्योंमें थाहड, नागदेव, उदयन, वागभट आदि अनेक श्रीमंत श्रावक थे।
उनका विहार खासकर मारवाड, मेवाड और गुजरात ही में हुआ था।
इस प्रकार जीवन पर्यंत जैनधर्मकी अनन्य सेवा कर श्रीवादिदेवसूरि वि. सं. १२२६के श्रावण कृष्ण सप्तमी गुरुवार के दिन मनुष्य लोकको छोड स्वर्गवासी हुए । पृथ्वी पर उनकी पर्ती करनेवाला अबतक कोई उत्पन्न नहीं हुआ।
उपसंहार-आज वादिदेवमूरि अपने समक्ष नहीं है, किन्तु उनकी कृति, कीर्ति, प्रखर शासनसेवा जीती जागती खडी है।
धन्य हो इस पोरवाड जातिको कि जिसने वादिदेवसरि समान अनूठे नररत्नको उत्पन्न कर अपना गौरव बढाया है । ___कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यने चादिदेवसरिकी इस प्रकार स्तुति की है:
यदि नाम कुमुदचन्द्रं नाजेस्यवसूरिरहिमरुचिः । कटिपरिधानमधास्यत् कतमः ज्वेताम्बरी जगति ? ॥ *
* इस लेखके लिखने में स्वर्गीय न्याय साहित्य तीर्थ मुनिराज श्री हिमांशुविजयजीने मुझे पूर्ण सहायता दी थी। अतः इस लेखका समस्त श्रेय उन्हींको है।
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