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અક ૮] શ્રી. જિનભદ્રસૂરિજી રાસસાર
[33] राज्ये ॥ वा० रत्नमूर्ति गणि । वा० जयाकर गणि वा० धर्मविलास गणि । शिष्यरत्न पं० पुण्यजय गणि वराणामुधमेन ॥ ॥ श्री स्तंभतीर्थ वास्तव्य ॥ चउरासी न्याति श्रृंगार ॥ ऊकेश वंशे राय भंडारी गोत्रे । भंडारी जाटराज । भं० श्रीराज भार्या चंपाई सुश्राविका । पुत्र। भं० अमीपाल भार्या ॥ अमरादे ॥ पठनार्थ ॥ छः ॥ ॥स्वाध्याय पुस्तिका ॥ लेखिता ॥ छः ॥
रास-सार भरतखण्ड के मेवाड देश में देउलपुर नामका नगर है वहां लखपत्ति राजा के राज्य में समृद्धिशाली छाजहड गोत्रीय श्रेष्ठि धीणिग नामक व्यवहारी निवास करता था। उसको शीलादि गुण विभूषिता सती स्त्री का नाम खेतल देवी था। इन्होंकी रत्नगर्भा कुक्षि से रामण कुमारने जन्म लिया, रामण कुमार असाधारण रूप गुण सम्पन्न थे ।
एक वार श्री जिनरत्नमरिजी महाराज उस नगर में पधारे। रामण कुमार के हृदय में आचार्य भगवान के उपदेशों से वैराग्य परिपूर्णरूप से जागृत हो गया । कुमारने मातुश्री के पास दोक्षा के लिए आज्ञा मांगी । माताने अनेक प्रकार के प्रलोभन दिये मिन्नत की पर सब व्यर्थ! अन्त में स्वेच्छानुसार आज्ञा प्राप्त कर ही ली ॥ समारोह पूर्वक दीक्षा की तैयारिया हुई, शुभ मुहूर्त में श्रीजिनराजसूरिजीने रामणकुमार को दीक्षा देकर “कीर्तिसागर मुनि" नाम प्रसिद्ध किया। गुरु महाराजने समस्त शास्त्रों का अध्ययन करने के लिये कीर्तिसागर मुनि को शीलचन्द्र गुरु को सौंपा उनके पास ये विद्याभ्यास करने लगे।
चन्द्रगच्छ के श्रृङ्गार आचार्य श्री सागरचन्द्रसूरिजीने गच्छाधिपति श्री जिनराजसरिजी के पट्ट पर बिठाने के लिए " कीर्तिसागरजी को" पसन्द किया। भाणसउलिपुर नगर में सुप्रसिद्ध साहूकार नाल्हिग निवास करते थे, जिनके पिताका नाम सहुडा और माताका नाम आंबणि था। लीलादेवी के भरथार नाल्हिग साह ने सर्वत्र कुंकुमपत्रिवें भेजीं, बाहर से संघ विशाल रूप में आने लगा। सं. १४७५ में शुभ मुहूर्त के समय श्री सागरचन्द्रसूरिजीने कीर्तिसागर मुनि को सरि पद पर प्रतिष्ठित किया नाल्हिग साहने बडे भारी समारोह से पट्टाभि षेकका उत्सव मनाया, नाना प्रकार के वाजिब बजाए गये, याचकों को मनोवांछित देकर सन्तुष्ट किया गया।
सुविहित-विधि-मार्ग-शिरोमणि श्री जिनभद्रसूरि युगप्रधान गुरुराज के गुणवर्णन कर कवि समयप्रम गणि “ गुरुदेव चिरकाल प्रत" ऐसी कामना करता हुआ अपना रास समाप्त करता है।
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