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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७] પ્રવાસ-ગીતિકા-ય [२६] अपनी नक्शी और शिल्प की सजावट में अद्वितीय है। इस प्रान्त में यह स्थान केशरियाजी के समान ही तीर्थस्वरूप माना जाता है और डूंगरपुर, पुनाली, बंकोडा, पूंजपुर, आशपुर, साबरा आदि गाँवों के भावुक इसकी यात्रा के लिये आया करते हैं। इसके आसपास के जंगली प्रदेश से कभी कभी जिनप्रतिमाएँ और जिनालयों के अवयव भी प्रगट हुआ करते हैं, जो इसकी प्राचीनता के द्योतक हैं। चूंडावाडा गाँव से दो मील दूर आमलाघाटा पहाड की खोह में उसकी ढालू भूमि पर नागपति धरणेन्द्र का छोटा शिखरबद्ध सुन्दर देवालय है जिसमें धरणेन्द्रजी की श्याम वर्ण सफण भव्य मूर्ति स्थापित है। उसके नागफण पर छोटी श्रीपार्श्वनाथ की मूर्ति विराजमान है। इस प्रान्त में यह स्थान नागतन, नागोतन और नागकडा नाम से प्रसिद्ध है, परन्तु इसका असली नाम 'नागफणीतीर्थ' है । इस प्रभावशाली तीर्थ की स्थापना विक्रमीय १४वीं शताब्दी के आरम्भ में हुई मालूम होती है। इसके चारो तरफ इतनी सघन झाडी है कि जिसमें हिंसक जन्तुओं का भय सदा रहता है । विना साथ, अकेले इसकी यात्रा करना जान जोखिम का काम है। वारिश में तो इसका रास्ता भी बन्द रहता है। पहले यहाँ भारी मेला भी भराता था, परन्तु सरकारी इन्तिजाम बराबर न होने से वह बन्द हो गया। देवालय की सीढ़ीयों के नाके पर मजबूत बांधे हुए ऊपर नीचे दो जलकुंड हैं। उनमें गोमुखो द्वारा देवालय के नीचे से तीन झरणों का जल एकत्रित हो कर गिरता है। उसकी जलधारा एक इंची जाडी बारहो मास दिनरात पडती रहती है, दुष्काल में भी बन्द नहीं होती । आश्चर्य है कि कुंड पर खडे रह कर यदि नागफणी-पार्श्वनाथ की जयध्वनि की जाय, तो जलधारा तीन इंची जाडी पडने लगती है और जयध्वनि बन्द करने से अपने मूल स्वरूप में कायम रहती है । हमेशां जलधारा पडती रहने पर भी, उसका जल कुंडसे बाहर वह कर नहीं जाता, किन्तु कुंड में ही विलय हो जाता है और कुंड सदा जलपूर्ण ही रहते हैं । यही इस तीर्थ का आश्चर्यजनक प्रभाव है। दूसरा प्रभाव यह है कि इस स्थान पर कोई अवधूत योगी ठहर नहीं सकता। अगर कोई हिम्मतपूर्वक धूनी लगा कर ठहर भी जाय तो दूसरे या तीसरे दिन धरणेन्द्रजी उसको ऐसा भय-भीत कर देते हैं कि-जिन्दगी पर्यन्त वह यहाँ फिर आनेका नाम नहीं लेता, अस्तु । इसके पास ही तीन चसमे की छोटी धर्मशाला है जो जीर्णशीर्ण हो रही है। अब इस प्रभावशाली जैनतीर्थ के जीर्णोद्धार की आवश्यता है । ॐ शान्तिः ! शान्तिः!! शातिः!!! For Private And Personal Use Only
SR No.521529
Book TitleJain Satyaprakash 1938 02 SrNo 31
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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