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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org [२५०] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ [ वर्ष अर्थ - आमण उपर घी, तेल वगैरे स्निग्ध पदार्थो लगाधीने हाथथी तेने अंदर पेसारी उंदरना मांसथी शेक करवो । तथा महानारायण तेल के जेमां अनर्गल जानवरोना मांस आवे छे ते पण बाह्य उपयोग माटे बतावेल छे । तथा मूषक तेल जे उंदरोथी बने छे तेनो पण बाह्य उपयोग बतावेल छे । तथा बीरबीहोटी लेप के जेमां अनल्य इन्द्रगोपजातिना जन्तुओ होय छे तेनो पण बाह्य उपयोग बतावेल छे । आम सेंकडो प्रकारे मांसना बाह्य प्रयोगो वैद्यक ग्रंथे पतिपादन कर्या छे, परंतु जोवुं होय तो ने ? मांसनी बाह्योपयोगितादर्शक प्रकारान्तर Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जैनशास्त्रमां वपराता मांस शब्दने अंगे जैनशास्त्राकारोए केटला अर्थमां मांस शब्दने संकेतित करेल छे, ते जाणवानी जैनशास्त्र वांचनारने अनिवार्य आवश्यकता छे. अन्यथा ग्रंथकारना तात्पर्यनो विघात करी शास्त्रने उन्मार्गमां दोरी जाय, अत एव पूर्व महर्षिओ जणावे छे के 66 'जलथलखहयरमंसं चम्मं वस सोणियं तिहेयंपि " [ जलचरस्थलखेचरमांसानि चर्म वसा शोणितं त्रिधैतदपि । ] भावार्थ - विगइओना भेद प्रतिपादन करता मांस विगइना संबंधमां जणावे छे के मांस त्रण प्रकारनुं छे. १ जलचर जीवोनुं. २ स्थलचर जीवोनुं, ३ खेचर जीवोनुं अथवा चामडी, वसा अने लोही ए पण मांस कहेवाय छे। हवे प्रस्तुत कल्पसूत्रना पाठने अंगे मांसशब्दथी वसा अने लोही लेवामां आवे तो तेना बाह्य उपयोगना संबन्धमां विवाद या सूक्ष्मेक्षिकाने अवकाश पण रहेतो नथी, कारण के वसा अने रुधिरनो बाह्य उपयोग आबालगोपाल प्रसिद्ध छे । आ अर्थ लेवामां बीजी पण एक मजा ए रही छे के रसविगइपशुं पण सरल रीते घटी शके छे. अर्थात्-कल्पसूचना प्रस्तुत पाठमां रसविगइनी गणत्रीमां मांस लीघेल छे. हवे जो मांस शब्दथो वसा अने लोही लेवामां आवे तो रसविगइपणुं तद्दन सरस रीते घटी शके छे अने मांसशब्दथी मांसनो टुकडो लेवामां आवे तो रसविगइपणुं घटाववुं कठिनता भरेलुं थाय, कारण के रसविगइनो अर्थ रसप्रधान विगइ थाय छे । अथवा तो रसविगइरूप मांस एटले मांसनो रसो, आ मांसना रसाना बाह्य प्रयोगो वैद्यकग्रंथे मांसरस प्रकरणमां अनेक रीते प्रतिपादन कर्या छे । आ उपरथी स्पष्ट समजी जणावेल छे ते वस्तुस्थिति भिन्नता नथी. छतां पण " महापापथी बचवाने माटे टीकाकारे बाह्य उपयोग बतावेल छे, आ बाह्य उपयोग पण संभवी शकतो नथी " आवो जे दिगम्बर लेखके आक्षेप करेल छे तेना महापापथी माटे तेमणे शुं सद्गुरु पासे प्रायश्चित्त लेवानी जरूर नथी ? शकाय तेम छे के टीकाकार महाराजे जे बतावी छे, लेशमात्र बाह्याभ्यन्तरवृत्तिनी For Private And Personal Use Only बचवाने अपूर्ण
SR No.521529
Book TitleJain Satyaprakash 1938 02 SrNo 31
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
PublisherJaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
Publication Year1938
Total Pages44
LanguageGujarati
ClassificationMagazine, India_Jain Satyaprakash, & India
File Size20 MB
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