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શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ __ [ 3] पाठोक्त व्यक्तिने सर्वदा निषेध केम नहि ? उपर्युक्त कल्पसूत्रना पाठमां वर्णवेल व्यक्तिओने वारंवार विगइओ वापरवामां जो विकृतिनी संभावना छे तो सर्वदाने माटे निषेध करवो उचित हतो, आम छतां चोमासाने माटे ज केम निषेध कर्यो ?
आ प्रस्तुत पाठवाळा कल्पसूत्रना एक विभागमा चोमासु रहेल साधु साध्वीने उद्देशीने अनेक विषयो प्रतिपादन कर्या छे. आ चतुर्मास प्रतिबद्ध विभागमा प्रस्तुत पाठ होवाथी चोमासु बतावेल छ । अथवा चोमासा सिवायना कालमा विहारादिकना परिश्रमने लईने वारंवार वपराती विगइओ पण विकृति कर्या सिवाय सारी रीते पची जाय, परंतु चोमासाना काळमां विहारादिकना परिश्रमना अभावे विकृतिनो संभव छ, माटे शेष काळमां नहि निषेधतां चोमासामा निषेधेल छ ।
प्रस्तुत पाठनी प्रकारान्तर योजना महापुरुषनां गम्भीर वचनो अनेक व्याख्यागर्भित होय ए स्वाभाविक छे, अत एव टीकाकार महाराज छेदसूत्रनै सामे राखी नीचे प्रमाणे निषेध प्रतिपादन करे छे
“यद्यपि मधुमद्यमांसनवनीतवर्जन यावज्जीवमस्त्येव तथाप्यत्यन्तापवाददशायां बाह्यपरिभोगार्थ कदाचिद् ग्रहणेऽपि चतुर्मास्यां सर्वथा निषेधः।"
सामान्य अर्थ-जो के मुनिजनोने मध, माखण, मांस अने मदिरान वर्जन यावज्जीवने माटे होय छे, छतां पण अत्यन्त अपवाद दशामां कदाचित् बाह्य उपयोगने अर्थ ग्रहण कराय तो पण चोमासामां तो तेनो सर्वथा निषेध ज समजवो ।
टीकाकार महर्षिना आशयने नहि समजनार आशाम्बर लेखके करेल आक्षेप___" टोकाकारने महाहिंसाके आक्षेपसे बचनके अभिप्रायसे शरीरके बाहरी उपयोगके लिये मांस सेवन बतलाया सो कुछ समझमें नहि आया, क्यों कि मांस कोई तेल नहीं जिसकी चमडे पर मालिश हो और न वह मलहमका ही काम देता है।" लेखकनो आ आक्षेप तेनी स्थूल दृष्टिने मुबारक हो।
टीकाकार महर्षिना वचन पर विशेष प्रकाश अमो प्रथम प्रकारमा जणावी गया हता के विगइओनो दण्डक पाठ अखण्डित राखवा माटे मध, माखण, मांस अने मदिरानां नामो गणाव्यां छ, प्रस्तुतमां तेनो उपयोग नथी । टीकाकार महाराज आ प्रकारने नहि अडकता प्रकारान्तर ले छ, तेमां एम जणाववा मांगे छे के मध, माखण, मांस अने मदिरानो पाठ प्रस्तुतमां पण उपयोगी छे. शो उपयोग छे ?
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